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________________ १- विनय-श्रुत २०. आयरिएहिं वाहिन्तो, तुसिणीओ न कयाइ वि । पसाय- पेही नियागट्ठी, उवचिट्ठे गुरु सया ।। २१. आलवन्ते लवन्ते वा न निसीएज्ज कयाइ वि । चऊणमासणं धीरो जओ जत्तं पडिस्सुणे ॥ २२. आसण- गओ न पुच्छेज्जा नेव सेज्जा-गओ कया । आगम्मुक् कुडुओ सन्तो पंजलीउडो ॥ पुच्छेज्जा बिणय- जुत्तस्स सुतं अत्यं च तदुभयं । पुच्छमाणस्स सीसस्स वागरेज्ज जहासुयं ॥ २३. एवं २४. मुसं परिहरे भिक्खू न य ओहारिणि वए । भासा-दोसं परिहरे मायं च वज्जए सया ॥ २५. न लवेज्ज पुट्ठो सावज्जं न निरदुं न मम्मयं । अप्पणट्ठा परट्ठा वा उभयस्सन्तरेण वा ॥ Jain Education International ७ गुरु के प्रसाद - कृपाभाव को चाहने वाला मोक्षार्थी शिष्य, आचार्यों के द्वारा बुलाये जाने पर किसी भी स्थिति में मौन न रहे, किन्तु निरन्तर उनकी सेवा में उपस्थित रहे । गुरु के द्वारा एक बार अथवा अनेक बार बुलाए जाने पर बुद्धिमान् शिष्य कभी बैठा न रहे, किन्तु आसन छोड़कर उनके आदेश को यत्नपूर्वक - सावधानता से स्वीकार करे । आसन अथवा शय्या पर बैठा-बैठा कभी भी गुरु से कोई बात न पूछे, किन्तु उनके समीप आकर, उकडू आसन से बैठकर और हाथ जोड़कर जो भी पूछना हो, पूछे । विनयी शिष्य के द्वारा इस प्रकार विनीत स्वभाव से पूछने पर गुरु सूत्र, अर्थ और तदुभय- दोनों का यथाश्रुत (जैसा सुना और जाना हो, वैसे ) निरूपण करे । भिक्षु असत्य का परिहार करे, निश्चयात्मक भाषा न बोले । भाषा के अन्य परिहास एवं संशय आदि दोषों को भी छोड़े। माया ( कपट) का सदा परित्याग करे । किसी के पूछने पर भी अपने लिए, दूसरों के लिए अथवा दोनों के लिए सावद्य (पापकारी) भाषा न बोले, निरर्थक न बोले, मर्म-भेदक वचन भी न कहे । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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