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________________ दमेयव्वो, अप्पा हु खलु दुद्दम । अप्पा दन्तो सुही होइ, अस्सि लोए परत्य य ॥ १५. अप्पा चेव १६. वरं मे अप्पा दन्तो, संजमेण तवेण य । माहं परेहि दम्मन्तो, बन्धणेहि वहेहि य ॥ बुद्धाणं, वाया अदुव कम्मुणा । आवी वा जड़ वा नेव कुज्जा कयाइ वि ॥ १७. पडिणीयं च रहस्से, १८. न पक्खओ न पुरओ, नेव किच्चाण पिटुओ । न जुंजे ऊरुणा ऊरूं, सयणे नो पडिस्सुणे ॥ १९. नेव पल्हत्थियं कुज्जा पक्खपिण्डं व संजए । पाए पसारिए वावि न चिट्ठे गुरुणन्तिए । Jain Education International उत्तराध्ययन सूत्र स्वयं पर ही विजय प्राप्त करना चाहिए । स्वयं पर विजय प्राप्त करना ही कठिन है। आत्म-विजेता ही इस लोक और परलोक में सुखी होता है । शिष्य विचार करे - ' अच्छा है कि मैं स्वयं ही संयम और तप के द्वारा स्वयं पर विजय प्राप्त करूँ । बन्धन और बध के द्वारा दूसरों से मैं दमित- प्रताड़ित किया जाऊँ, यह अच्छा नहीं है ।' लोगों के समक्ष अथवा अकेले में वाणी से अथवा कर्म से, कभी भी आचार्यों के प्रतिकूल आचरण नहीं करना चाहिए । कृत्य — अर्थात् आचार्यों के बराबर न बैठे, आगे न बैठे, न पीठ के पीछे ही सटकर बैठे। गुरु के अति निकट जांघ से जांघ सटाकर शरीर का स्पर्श हो, ऐसे भी न बैठे। बिछौने पर बैठे-बैठे ही गुरु के कथित आदेश का स्वीकृतिरूप उत्तर न दे । अर्थात् आसन से उठकर पास आकर प्रति निवेदन करे । गुरु के समक्ष पलथी लगाकर न बैठे, दोनों हाथों से शरीर को बाँधकर न बैठे तथा पैरों को फैलाकर भी न बैठे। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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