________________
१-विनय-श्रुत
११. आहच्च चण्डालियं कट्ट,
न निण्हविज्ज कयाइ वि। कडं 'कडे' त्ति भासेज्जा, अकडं 'नो कडे' त्ति य॥
१२. मा गलियस्से व कसं,
वयणमिच्छे पुणो पुणो। कसं व दट्ठमाइण्णे, पावगं परिवज्जए।
सता
१३. अणासा थूलवया कुसीला
मिउंपि चण्डं पकरेंति सीसा। चित्ताणुया लहु दक्खोववेया, पसायए ते हु दुरासयं पि॥
आवेश-वश यदि शिष्य कोई चाण्डालिक-गलत व्यवहार कर भी ले तो उसे कभी भी न छिपाए। किया हो तो 'किया' कहे, और न किया हो तो 'नहीं किया' कहे। __ जैसे कि गलिताश्व-अडियल घोड़े को बार-बार चाबुक की जरूरत होती है, वैसे शिष्य गुरु के बार-बार आदेश-वचनों की अपेक्षा न करे । किन्तु जैसे आकीर्ण-उत्तम शिक्षित अश्व चाबुक को देखते ही उन्मार्ग को छोड़ देता है, वैसे ही योग्य शिष्य गुरु के संकेतमात्र से पापक कर्म-गलत आचरण को छोड़ दे।
आज्ञा में न रहने वाले, बिना विचारे कुछ का कुछ बोलने वाले दुष्ट शिष्य, मृदु स्वभाव वाले गुरु को भी क्रुद्ध बना देते हैं। और गुरु के मनोनुकूल चलने वाले एवं पटुता से कार्य सम्पन्न करने वाले शिष्य शीघ्र ही कुपित होने वाले दुराश्रय गुरु को भी प्रसन्न कर लेते हैं।
बिना पूछे कुछ भी न बोले, पूछने पर भी असत्य न कहे। यदि कभी क्रोध आ भी जाए तो उसे निष्फल करे--अर्थात् क्रोध को आगे न बढ़ा कर वहीं उसे शान्त कर दे। आचार्य की प्रिय और अप्रिय दोनों ही शिक्षाओं को धारण करे।
१४. नापुट्ठो वागरे किंचि,
पुट्ठो वा नालियं वए। कोहं असच्चं कुव्वेज्जा, धारेज्जा पियमप्पियं ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org