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________________ د उत्तराध्ययन सूत्र نو कण-कुण्डगं चइत्ताणं, विटुं भुंजइ सूयरे। एवं सीलं चइत्ताणं, दुस्सीले रमई मिए। सुणियाऽभावं साणस्स, सूयरस्स नरस्स य। विणए ठवेज्ज अप्पाणं, इच्छन्तो हियमप्पणो॥ ७. तम्हा विणयमेसेज्जा, सीलं पडिलभे जओ। बुद्ध-पुत्त नियागट्टी, न निक्कसिज्जइ कण्हुई। जिस प्रकार सूअर चावलों की भूसी को छोड़कर विष्ठा खाता है, उसी प्रकार मृग-पशुबुद्धि अज्ञानी शिष्य शील-सदाचार छोड़कर दुःशीलदुराचार में रमण करता है। अपना हित चाहने वाला भिक्षु, सड़े कान वाली कुतिया और विष्ठा भोजी सूअर के समान, दुःशील से होने वाले मनुष्य के अभाव-अशोभनहीनस्थिति को समझ कर विनय धर्म में अपने को स्थापित करे। इसलिए विनय का आचरण करना चाहिए, जिससे कि शील की प्राप्ति हो। जो बुद्ध-पुत्र है-प्रबुद्ध गुरु का पुत्रवत् प्रिय मोक्षार्थी शिष्य है, वह कहीं से भी निकाला नहीं जाता। शिष्य बुद्ध-गुरुजनों के निकट सदैव प्रशान्त भाव से रहे, वाचाल न बने । अर्थपूर्ण पदों को सीखे। निरर्थक बातों को छोड़ दे। ____ गुरु के द्वारा अनुशासित होने पर समझदार शिष्य क्रोध न करे, क्षमा की आराधना करे-शान्त रहे। क्षुद्र व्यक्तियों के सम्पर्क से दूर रहे, उनके साथ हँसी-मजाक और अन्य कोई क्रीड़ा भी न करे। शिष्य आवेश में आकर कोई चाण्डालिक-आवेशमूलक अपकर्म न करे, बकवास न करे । अध्ययन काल में अध्ययन करे और उसके बाद एकाकी ध्यान करे। निसन्ते सियाऽमुहरी, बुद्धाणं अन्तिए सया। अट्टजुत्ताणि सिक्खेज्जा, निरट्ठाणि उ वज्जए॥ अणुसासिओ न कुप्पेज्जा, खंति सेवेज्ज पण्डिए। खुड्डेहिं सह संसरिंग, हासं कीडं च वज्जए॥ १०. मा य चण्डालियं कासी, बहुयं मा य आलवे। कालेण य अहिज्जित्ता, तओ झाएज्ज एगगो॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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