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पढमं अज्झयणं : प्रथम अध्ययन विणय- सुयं : विनय-श्रुत
मूल संजोगा विष्पमुक्कस्स, अणगारस्स भिक्खुणो । विणयं पाउकरिस्सामि, आणुपुवि सुणेह मे ।।
आणानिद्देसकरे,
गुरूणमुववायकारए । इंगियागारसंपन्ने,
से ' विणी' त्ति वुच्चई ॥
आणाऽनिद्देसकरे,
गुरुणमणुववायकारए । पडिणीए असंबुद्धे, 'अविणीए' त्ति वुच्चई ||
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जहा सुणी पूई कण्णी, निक्कसिज्जइ सव्वसो एवं दुस्सील - पडिणीए, मुहरी निक्कसिज्जई ||
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हिन्दी अनुवाद
जो सांसारिक संयोगों, अर्थात् बन्धनों से मुक्त है, अनगार- गृहत्यागी है, भिक्षु है, उसके विनय धर्म का अनुक्रम से निरूपण करूँगा, उसे ध्यानपूर्वक मुझसे सुनो।
जो गुरु की आज्ञा का पालन करता है, गुरु के सान्निध्य में रहता है, गुरु के इंगित एवं आकारर - अर्थात् संकेत और मनोभावों को जानता है, वह 'विनीत' कहलाता है ।
जो गुरु की आज्ञा का पालन नहीं करता है, गुरु के सान्निध्य में नहीं रहता है, गुरु के प्रतिकूल आचरण करता है, असंबुद्ध है— तत्त्वज्ञ नहीं है, वह 'अविनीत' कहलाता है ।
जिस प्रकार सड़े कान की कुतिया घृणा के साथ सभी स्थानों से निकाल दी जाती है, उसी प्रकार गुरु के प्रतिकूल आचरण करने वाला दुःशील वाचाल शिष्य भी सर्वत्र अपमानित करके निकाल दिया जाता है
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