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________________ उत्तराध्ययन सूत्र टूट जाता है, जीवन विकेन्द्रित हो जाता है। वह अपने जीवन में कुछ भी अच्छा नहीं कर सकता। यहाँ एक बात समझ लेनी जरूरी है, कि विनय से आर्य सुधर्मा का अभिप्राय दासता या दीनता नहीं है, गुरु की गुलामी नहीं है, स्वार्थ सिद्धि के लिए कोई दुरंगी चाल नहीं है, सामाजिक व्यवस्था-मात्र भी नहीं है। और न वह कोई आरोपित औपचारिकता ही है। अपितु गुणीजनों और गुरुजनों के महनीय एवं पवित्रगुणों के प्रति सहज प्रमोद भाव है। यह प्रमोद भाव ही विनय है, जो गुरु और शिष्य के मध्य एक सेतु का काम करता है, उसके माध्यम से गुरु, शिष्य को ज्ञान से लाभान्वित करते हैं। वस्तुत: गुरु एक दक्ष शिल्पी की भाँति होता है। शिल्पी की ओर से पत्थर पर की गयी चोट पत्थर को तोड़ने के लिए नहीं होती है, अपितु उसमें छुपे सौन्दर्य को प्रगट करने के लिए होती है। इसी प्रकार गुरु का अनुशासन भी शिष्य की अन्तरात्मा के छुपे हुए आध्यात्मिक सौन्दर्य को अभिव्यक्त करने के लिए होता है। अत: शिष्य का कर्तव्य है, कि गुरु के मनोगत अभिप्राय को समझे, गुरु के साथ योग्य सद्व्यवहार रखे। गुरु के निर्माणकारी अनुशासन को सहर्ष स्वीकार करे । अपनी आचार संहिता का सम्यक् पालन करे और गुरु को हर स्थिति में संतुष्ट और प्रसन्न रखे। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है, कि अगर शिष्य अपने व्यवहार से गुरु को आश्वस्त नहीं कर सकता है, गुरु की दृष्टि में यदि वह अप्रामाणिक, अनैतिक और दुराचारी है, तो गुरु शिष्य को जो देना चाहते हैं, वे ठीक तरह दे नहीं सकेंगे। उक्त स्थिति में शिष्य जो पाना चाहता है, वह नहीं पा सकेगा। इसलिए गुरु की मानसिक प्रसन्नता शिष्य के लिए ज्ञान-प्राप्ति की प्रथम शर्त है। गुरु के महत्व को ध्यान में रखकर शिष्य को गुरु के प्रति अपने को सर्वात्मना समर्पण करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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