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विनय-श्रुत आर्य सुधर्मा का आर्य जम्बू को विनयश्रुत का प्रतिबोध !
मुक्ति का प्रथम चरण है-'विनय ।'
पावाकी अन्तिम धर्मसभा में, आर्य सुधर्मा स्वामी ने भगवान महावीर से, विनय के सम्बन्ध में जो सुना और जो समझा, उसे अपने प्रिय शिष्य जम्बू को समझाया है।
यद्यपि सम्पूर्ण विनय के प्रकरण में आर्य सुधर्मा ने विनय की परिभाषा नहीं दी है, किन्तु विनयी और अविनयी के व्यवहार और उनके परिणाम की विस्तार से चर्चा की है और उसके आधार पर विनय और अविनय की परिभाषा स्वत: स्पष्ट हो जाती है।
वस्तुत: विनय और अविनय अन्तरंग भाव-जगत् की सूक्ष्म अवस्थाएँ हैं। विनयी और अविनयी के व्यवहार की व्याख्या हो सकती है, किन्तु विनय और अविनय की शब्दों में व्याख्या असंभव है, फिर भी दोनों के व्यवहार और परिणाम को समझाकर विनय को प्रतिष्ठित किया जा सकता है। और व्यक्ति का बाह्य व्यवहार भी तो अन्तत: अन्तरंग भावों का प्रतिबिम्ब ही होता है। उस पर से अन्तरंग स्थिति को समझने के कुछ संकेत मिल सकते हैं । यही प्रयास इस प्रकरण में है।
प्रस्तुत विनयश्रुत अध्ययन में बताया गया है कि विनयी का चित्त अहंकारशून्य होता है-सरल, निर्दोष, विनम्र और अनाग्रही होता है। अत: वह परम ज्ञान की उपलब्धि में सक्षम होता है। इसके विपरीत अविनयी अहंकारी होता है, कठोर होता है, हिंसक होता है, विद्रोही होता है। आक्रामक और विध्वंसात्मक होता है । इस अहंता एवं कठोरता के कारण अविनीत अपने जीवन का सही दिशा में निर्माण नहीं कर सकता है। उसकी शक्तियाँ बिखर जाती हैं। उसका व्यक्तित्व
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