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३४-लेश्याध्ययन
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जो मित-भाषी है, उपशान्त है, जितेन्द्रिय है-इन सभी योगों से युक्त वह पद्म लेश्या में परिणत होता है।
३०. तहा पयणुवाई य
उवसन्ते जिइन्दिए। एयजोगसमाउत्ते
पम्हलेसं तु परिणमे॥ ३१. अट्टरुद्दाणि वज्जित्ता
धम्मसुक्काणि झायए। पसन्तचित्ते दन्तप्पा समिए गुत्ते य गुत्तिहिं ।।
३२. सरागे वीयरागे वा
उवसन्ते जिइन्दिए। एयजोग-समाउत्तो सुक्कलेसं तु परिणमे॥
३३. असंखिज्जाणोसप्पिणीण
उस्सप्पिणीण जे समया। संखाईया लोगा लेसाण हुन्ति ठाणाई॥
आर्त्त और रौद्र अध्यानों को छोड़कर जो धर्म और शक्ल ध्यान में लीन है, जो प्रशान्त-चित्त और दान्त है, पाँच समितियों से समित और तीन गुप्तियों से गुप्त है
सराग हो या वीतराग, किन्तु जो उपशान्त है, जितेन्द्रिय है-इन सभी योगों से युक्त वह शुक्ल लेश्या में परिणत होता है।
स्थान द्वार
असंख्य अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल के जितने समय होते हैं, असंख्य योजन प्रमाण लोक के जितने आकाश-प्रदेश होते हैं, उतने ही लेश्याओं के स्थान (शुभाशुभ भावों की चढ़ती-उतरती भूमिकाएँ) होती हैं।
स्थिति द्वार
कृष्ण-लेश्या की जघन्य (कम से कम) स्थिति मुहूर्तार्ध अर्थात् अन्तर् मुहूर्त है और उत्कृष्ट स्थिति एक मुहूर्त-अधिक तेतीस सागर है।
३४. मुहुत्तद्धं तु जहन्ना
तेत्तीसं सागरा मुहुत्तऽहिया। उक्कोसा होइ ठिई
नायव्वा किण्हलेसाए । ३५. मुहूत्तद्धं तु जहन्ना दस उदही पलियमसंख
भागमब्भहिया। उक्कोसा होइ ठिई नायव्वा नीललेसाए॥
नील लेश्या की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दस सागर हैं।
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