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________________ ३६६ २४. आरम्भाओ अविरओ खुद्द साहस्सिओ नरो । जोगमा नीललेसं तु परिणमे ॥ २५. वंके वंकसमायारे नियडिल्ले अणुज्जुए । पलिउंचग ओहिए मिच्छदिट्टी अणारिए || २६. उप्फालग-दुट्टवाई य तेणे यावि य मच्छरी । एयजोगसमाउत्तो काउले त परिणमे | तु २७. नीयावित्ती अचवले अमाई अकुऊहले । विणीयविणए दन्ते जोगवं उवहाणवं ॥ दढधम्मे वज्जभीरू हिएसए । २८. पियधम्मे तेलसं तु परिणमे || २९. पयणुक्कोह-माणे य माया- लोभे य पयणुए । दन्तप्पा पसन्तचित्ते जोगवं Jain Education International वहावं ॥ उत्तराध्ययन सूत्र जो आरम्भ से अविरत है, क्षुद्र है, दुःसाहसी है - इन योगों से युक्त मनुष्य नील लेश्या में परिणत होता है । जो मनुष्य वक्र है - वाणी से टेढ़ा है, आचार से टेढ़ा है, कपट करता है, सरलता से रहित है, प्रति-कुञ्चक है— अपने दोषों को छुपाता है, औषधिक है— सर्वत्र छद्म का प्रयोग करता है । मिथ्यादृष्टि है, अनार्य है— उत्पासक है— गंदा मजाक करने वाला है, दुष्ट वचन बोलता है, चोर है, मत्सरी है, इन सभी योगों से युक्त वह कापोत लेश्या में परिणत होता है । जो नम्र है, अचपल है, माया से रहित है, अकुतूहल है, विनय करने में निपुण है, दान्त है, योगवान् हैस्वाध्याय आदि के द्वारा समाधिसम्पन्न है, उपधान (श्रुतोपचार अर्थात् श्रुत - अध्ययन के समय विहित तप ) करने वाला है । प्रियधर्मी है, दृधधर्मी है, पाप - भीरु है, हितैषी है— इन सभी योगों से युक्त वह तेजोलेश्या में परिणत होता है । क्रोध, मान, माया और लोभ जिसके अत्यन्त अल्प हैं, जो प्रशान्तचित्त है, अपनी आत्मा का दमन करता है, योगवान् है, उपधान करने वाला है— For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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