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लेश्याध्ययन
कषायश्लिष्ट आत्मपरिणाम ही बन्ध के हेतु हैं । शुभाशुभ प्रवृत्ति का मूलाधार शुभाशुभ लेश्या हैं ।
सामान्यतः मन आदि योगों से अनुरंजित तथा विशेषतः कषायानुरंजित आत्मपरिणामों से जीव एक विशिष्ट पर्यावरण पैदा करता है । यह पर्यावरण ही लेश्या है । वस्तुत: पूर्व प्रतिबद्ध संस्कारों के अनुसार जीव के अध्यवसाय होते हैं और अध्यवसायों के अनुरूप ही जीव की अच्छी-बुरी प्रवृत्ति होती है । भावी कर्मों की श्रृंखला भी इसी अध्यवसाय की परम्परा से सम्बन्धित है । भाव से द्रव्य और द्रव्य से भाव की कार्यकारणरूप परम्परा है। अतः लेश्या भी भाव और द्रव्य दोनों प्रकार की हैं । द्रव्य लेश्याएँ पौद्गलिक होती हैं, अतः इनके वर्ण, रस, गंध, स्पर्श आदि का भी उल्लेख हुआ है । अथवा वह अन्तर्मन की शुभाशुभ विचारधारा के लिए सर्वसाधारण के बोधार्थ एक शास्त्रीय रूपक भी हो सकता है। वैसे आज के विज्ञान ने मानव- - मस्तिष्क में स्फुरित होने वाले विचारों के चित्र भी लिए हैं, जिनमें अच्छे-बुरे रंग उभरे हैं ।
में प्रस्तुत शास्त्रकार यह कहना चाहते हैं कि व्यक्ति के जीवन का निर्माण उसके अपने विचार में है । वह जैसा भी चाहे, अपने को बना सकता है । बाह्य और आन्तरिक दोनों ही जगत् एक दूसरे से प्रभावित होते हैं । पुद्गल से जीव प्रभावित होता है और जीव से पुद्गल । दोनों का परस्पर प्रभाव ही प्रभा है, आभा है, कान्ति है, छाया है । इसे ही दर्शन की भाषा में लेश्या कहा गया है ।
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