________________
३३- कर्म - प्रकृति
१४. गोयं कम्मं दुविहं उच्च नीयं च आहियं । उच्चं अट्ठविहं होइ एवं नीयं पि आहियं ॥
१५. दाणे लाभे य भोगे य
aभोगे वीरिए तहा । पंचविहमन्तरायं
समासेण वियाहियं ॥
१६. एयाओ मूलपयडीओ । उत्तराओ य आहिया । पसग्गं खेत्तकाले य
भावं चादुत्तरं सुण ॥
१७. सव्वेसिं चेव कम्माणं
पएसग्गमणन्तगं । गण्ठिय-सत्ताईयं अन्तो सिद्धाण आहियं ॥
१८. सव्वजीवाण कम्मं तु संगहे छद्दिसागयं । सव्वेसु वि पएसेसु सव्वं सव्वेण बद्धगं ॥
१९. उदहीसरिनामाणं
तीस कोडिकोडिओ | उक्कोसिया ठिई होइ अन्तोमुहुत्तं जहन्निया ।।
२०. आवरणिज्जाण दुहंपि वेयणिज्जे तहेव य । अन्तराए य कम्मम्मि ठिई एसा वियाहिया ||
Jain Education International
३५९
गोत्र कर्म के दो भेद हैं- उच्च गोत्र और नीच गोत्र । इन दोनों के आठ-आठ भेद हैं 1
संक्षेप से अन्तराय कर्म के पाँच भेद हैं- दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय ।
ये कर्मों की मूल प्रकृतियाँ और उत्तर प्रकृतियाँ कही गईं हैं। इसके आगे उनके प्रदेशाग्र- द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को सुनो।
एक समय में ग्राह्य-बद्ध होने वाले सभी कर्मों का प्रदेशाग्र-कर्मपुद्गलरूप द्रव्य अनन्त होता है । वह ग्रन्थिग सत्त्वों से - अर्थात् ग्रन्थिभेद न करने वाले अनन्त अभव्य जीवों से अनन्त गुण अधिक और सिद्धों के अनन्तवें भाग जितना होता है ।
सभी जीवों के लिए संग्रह — बद्ध करने योग्य कर्म - पुद्गल छहों दिशाओं में - आत्मा से स्पृष्ट- अवगाहित सभी आकाश प्रदेशों में हैं । सभी कर्म - पुद्गल बन्ध के समय आत्मा के सभी प्रदेशों के साथ बद्ध होते हैं ।
उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटि-कोटि उदधिसदृश - सागरोपम की है। और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहुर्त की है
:
दो आवरणीय कर्म अर्थात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण तथा वेदनीय और अन्तराय कर्म की यह (उपर्युक्त) स्थाई गई है।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org