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कर्म-प्रकृति विभाव में कर्मबन्ध होता है और स्वभाव में कर्मबन्ध से
मुक्ति होती है।
स्वरूप की अपेक्षा से विश्व के तमाम जीव समान हैं। उनमें मूलत: कोई भेद नहीं है। जो भेद है वह कर्मों के होने तथा न होने के कारण है। कर्म जड़ है, पुद्गल है। रागादि विभाव परिणति के कारण जीव का कर्म के साथ बन्ध होता है । बन्ध अनादि है। यह कब हुआ? यह नहीं बताया जा सकता, क्योंकि अबन्ध स्थिति पूर्व में कभी थी ही नहीं।
कर्म आठ हैं। वस्तुत: कर्मवर्गणा के परमाणुओं में कोई भिन्नता नहीं है। किन्तु जीव के भिन्न-भिन्न अध्यवसायों के कारण कर्मों की प्रकृति में तथा स्थिति में भिन्नता आती है। जैसे ज्ञानी के ज्ञान की अवहेलनारूप अध्यवसाय में जीव ज्ञानावरण-रूप में कर्म-पुद्गलों को अपनी ओर आकृष्ट करता है। अवहेलना के अध्यवसाय में तीव्र एवं मन्द आदि अनेक भावनाएँ समाविष्ट हैं। अनेक प्रकार की उत्तेजनाएँ हैं। अध्यवसाय की स्थिति में भिन्नता है। अत: जिन कर्मपुद्गलों को जीव ग्रहण करता है, उनका अध्यवसाय की प्रमुखता से तीव्रता तथा मन्दता में वर्गीकरण होता है।
विशिष्ट बोधरूप ज्ञान को आच्छादित करने वाला ज्ञानावरणीय कर्म होता है। इसी प्रकार अन्य कर्मों के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिए। सामान्य बोध को ढाँक देने वाला दर्शनावरणीय कर्म होता है। जो सुख और दुःख का हेतु बनता है, वह वेदनीय कर्म है। जो दर्शन और चारित्र में विकृति पैदा करता है, वह मोहनीय कर्म है। जीवन-काल का निर्धारण आयु-कर्म करता है। ऊँच अथवा नीच गोत्र का कारण गोत्र-कर्म है। शक्ति का अवरोधक कर्म अन्तराय है। इनकी उत्तर प्रकृतियाँ १४८ हैं।
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