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________________ ३५४ उत्तराध्ययन सूत्र १०८. स वीयरागो कयसव्वकिच्चो वह कृतकृत्य वीतराग आत्मा खवेइ नाणावरणं खणणं। क्षणभर में ज्ञानावरण का क्षय करता तहेव जं दंसणमावरेइ है। दर्शन के आवरणों को हटाता है जं चऽन्तरायं पकरेइ कम्मं ॥ और अन्तराय कर्म को दूर करता है। १०९. सव्वं तओ जाणइ पासए य उसके बाद वह सब जानता है अमोहणे होइ निरन्तराए। और देखता है, तथा मोह और अन्तराय अणासवे झाणसमाहिजुत्ते से रहित होता है। निराश्रव और शुद्ध आउक्खए मोक्खमुवेइसुद्धे ॥ होता है। ध्यान-समाधि से सम्पन्न होता है। आयुष्य के क्षय होने पर मोक्ष को प्राप्त होता है। ११०. सो तस्स सव्वस्स दुहस्स मुक्को जो जीव को सदैव बाधा-पीड़ा जं बाहई सययं जन्तुमेयं। देते रहते हैं, उन समस्त दुःखों से तथा दीहामयविप्पमुक्को पसत्यो दीर्घकालीन कर्मों से मुक्त होता है। तब तो होइ अच्चन्तसुही कयत्यो।। वह प्रशस्त, अत्यन्त सुखी तथा कृतार्थ होता है। १११. अणाइकालप्पभवस्स एसो अनादि काल से उत्पन्न होते आए सव्वस्स दुक्खस्स पमोक्खमग्गो। सर्व दुःखों से मुक्ति का यह मार्ग वियाहिओ जं समविच्च सत्ता बताया है। उसे सम्यक् प्रकार से कमेण अच्चन्तसही भवन्ति ॥ स्वीकार कर जीव क्रमश: अत्यन्त (अनन्त) सुखी होते हैं। -त्ति बेमि। -ऐसा मैं कहता हूँ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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