SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 386
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२-प्रमाद-स्थान ३५३ १०३. आवज्जई एवमणेगरूवे अनेक प्रकार के विकारों को, उनसे एवंविहे कामगुणेसु सत्तो। उत्पन्न अन्य अनेक कुपरिणामों को वह अन्ने य एयप्पभवे विसेसे प्राप्त होता है, जो कामगुणों में आसक्त कारुण्णदीणे हिरिमे वइस्से॥ है। और वह करुणास्पद, दीन, लज्जित और अप्रिय भी होता है। " १०४. कप्पं न इच्छिज्ज सहायलिच्छू . शरीर की सेवारूप सहायता आदि पच्छाणुतावेय तवप्पभावं। की लिप्सा से कल्पयोग्य शिष्य की भी एवं वियारे अमियप्पयारे इच्छा न करे। दीक्षित होने के बाद आवज्जई इन्दियचोरवस्से॥ अनुतप्त होकर तप के प्रभाव की इच्छा न करे । इन्द्रियरूपी चारों के वशीभूत जीव अनेक प्रकार के अपरिमित विकारों को प्राप्त करता है। १०५. तओ से जायन्ति पओयणाइं विकारों के होने के बाद मोहरूपी निमज्जिडं मोहमहण्णवम्मि। महासागर में डुबाने के लिए विषयासुहेसिणो दुक्खविणोयणट्ठा सेवन एवं हिंसादि अनेक प्रयोजन तप्पच्चयं उज्जमए य रागी॥ उपस्थित होते हैं। तब वह सुखाभि लाषी रागी व्यक्ति दुःख से मुक्त होने के लिए प्रयत्न करता है। १०६. विरज्जमाणस्स य इन्दियत्था सद्दाइया तावइयप्पगारा। न तस्स सव्वे वि मणुन्नयं वा निव्वत्तयन्ती अमणुन्नयं वा॥ इन्द्रियों के जितने भी शब्दादि विषय हैं, वे सभी विरक्त व्यक्ति के मन में मनोज्ञता अथवा अमनोज्ञता उत्पन्न नहीं करते हैं। १०७. एवं ससंकप्पविकप्पणासुं “अपने ही संकल्प-विकल्प सब संजायई समयमुवट्टियस्स। दोषों के कारण हैं, इन्द्रियों के विषय अत्थे य संकप्पयओ तओ से नहीं”—ऐसा जो संकल्प करता है, पहीयए कामगुणेसु तहा। उसके मन में समता जागृत होती है और उससे उसकी काम-गुणों की तुष्णा क्षीण होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy