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उत्तराध्ययन सूत्र
९७. भावाणुरत्तस्स नरस्स एवं इस प्रकार भाव में अनुरक्त पुरुष
कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि? को कहाँ, कब और कितना सुख तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं होगा? जिसे पाने के लिए दुःख निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ॥ उठाता है। उसके उपभोग में भी
क्लेश और दुःख ही होता है। ९८. एमेव भावम्मि गओ पओसं इसी प्रकार जो भाव के प्रति द्वेष
उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। करता है, वह उत्तरोत्तर अनेक दुःखों की पदुद्दचित्तो य चिणाइ कम्मं परम्परा को प्राप्त होता है। द्वेष-युक्त जं से पुणो होइ दुहं विवागे॥ चित्त से जिन कर्मों का उपार्जन करता
है, वे ही विपाक के समय में दुःख के
कारण बनते हैं। ९९. भावे विरत्तो मणुओ विसोगो भाव में विरक्त मनुष्य शोक-रहित
एएण दुक्खोहरंपरेण। होता है। वह संसार में रहता हुआ भी न लिप्पई भवमझे वि सन्तो लिप्त नहीं होता है, जैसे जलाशय में
जलेण वा पोक्खरिणीपलासं॥ कमल का पत्ता जल से। १००. एविन्दियत्था य मणस्स अत्था इस प्रकार रागी मनुष्य के लिए
दुक्खस्स हेडं मणुयस्स रागिणो। इन्द्रिय और मन के जो विषय दःख के ते चेव थोवं पि कयाइ दुक्खं हेतु हैं, वे ही वीतराग के लिए कभी भी न वीयरागस्स करेन्ति किंचि॥ किंचित् मात्र भी दु:ख के कारण नहीं
होते हैं।
१०१. न कामभोगा समयं उवेन्ति काम-भोग न समता-समभाव
न यावि भोगा विगई उवेन्ति। लाते हैं, और न विकृति लाते हैं। जो जे तप्पओसी य परिग्गही य उनके प्रति द्वेष और ममत्त्व रखता है, सो तेसु मोहा विगइं उवेइ ॥ वह उनमें मोह के कारण विकृति को
प्राप्त होता है।
१०२. कोहं च माणं च तहेव मायं क्रोध, मान, माया, लोभ, जुगुप्सा,
लोहं दुगुंछं अरइं रइं च। अरति, रति, हास्य, भय, शोक, हासं भयं सोगपुमिथिवेयं पुरुष-वेद, स्त्री वेद, नपुंसक वेद, नपुंसवेयं विविहे य भावे॥ तथा हर्ष-विषाद आदि विविध भावों
को
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