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________________ ३२-प्रमाद-स्थान ३५१ ९२. ९१. एगन्तरते रुइरंसि भावे जो मनोज्ञ भाव में एकान्त आसक्त अतालिसे से कुणई पओसं। होता है, और अमनोज्ञ में द्वेष करता है, दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले वह अज्ञानी दुःख की पीड़ा को प्राप्त न लिप्पई तेण मुणी विरागो॥ होता है। विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं होता। भावाणुगासाणुगए य जीवे भाव की आशा का अनुगामी चराचरे हिंसइ ऽणेगरूवे। व्यक्ति अनेक रूप त्रस और स्थावर चित्तेहि ते परितावेइ बाले जीवों की हिंसा करता है। अपने पीलेड अत्तगरू किलिदे॥ प्रयोजन को ही मुख्य मानने वाला क्लिष्ट अज्ञानी जीव विविध प्रकार से उन्हें परिताप देता है, पीड़ा पहुँचाता है। ९३. भावाणुवाएण परिग्गहेण भाव में अनुरक्त और ममत्व के उप्पायणे रक्खणसन्निओगे। कारण भाव के उत्पादन में, संरक्षण में, वए विओगे य कहिं सुहं से? सन्नियोग में तथा व्यय और वियोग में संभोगकाले य अतित्तिलाभे॥ उसे सुख कहाँ ? उसे उपभोगकाल में भी तृप्ति नहीं मिलती है। ९४. भावे अतित्ते य परिग्गहे य भाव में अतप्त तथा परिग्रह में सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढेि। आसक्त और उपसक्त व्यक्ति संतोष को अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स प्राप्त नहीं होता। वह असंतोष के दोष लोभाविले आययई अदत्तं ॥ से दुःखी तथा लोभ से व्याकुल होकर दूसरों की वस्तु चुराता है। ९५. तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो भाव और परिग्रह में अतृप्त तथा भावे अतित्तस्स परिग्गहे या तृष्णा से अभिभूत होकर वह दूसरों की मायामुसं वड़ा लोभदोसा वस्तुओं का अपहरण करता है । लोभ के दोष से उसका कपट और झूठ तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से॥ व तत्वाव दुक्खानामुष्य " बढ़ता है। कपट और झूठ से भी वह दुःख से मुक्त नहीं हो पाता है। ९६. मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य . झूठ बोलने के पहले, उसके बाद, पओगकाले य दही दरन्ते। और बोलने के समय वह दुःखी होता एवं अदत्ताणि समाययन्तो है। उसका अन्त भी दुःखरूप है। इस " प्रकार भाव में अतृप्त होकर वह चोरी भावे अतित्तो दुहिणो अणिस्सो॥ करता है, दु:खी और आश्रयहीन हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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