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उत्तराध्ययन सूत्र
८५. एमेव फासम्मि गओ पओसं इसी प्रकार जो स्पर्श के प्रति द्वेष
उबेइ दुक्खोहपरंपराओ। करता है, वह भी उत्तरोत्तर अनेक दुःखों पदुद्दचित्तो य चिणाइ कम्मं की परम्परा को प्राप्त होता है। द्वेषयुक्त जं से पुणो होइ दुहं विवागे॥ चित्त से जिन कर्मों का उपार्जन करता
है, वे ही विपाक के समय में दुःख के
कारण बनते हैं। ८६. फासे विरत्तो मणुओ विसोगो स्पर्श में विरक्त मनुष्य शोकरहित
एएण दुक्खोहपरंपरेण। होता है। वह संसार में रहता हुआ भी न लिप्पई भवमझे वि सन्तो लिप्त नहीं होता है। जैसे जलाशय में
जलेण वा पोक्खरिणीपलासं॥ कमल का पत्ता जल से। ८७. मणस्स भावं गहणं वयन्ति मन का विषय भाव (अभिप्राय,
तं रागहेडं तु मणुन्नमाहु। विचार) है। जो भाव राग में कारण है, तं दोसहेडं अमणुन्नमाहु उसे मनोज्ञ कहते हैं और जो भाव द्वेष समो यजो तेसु स वीयरागो॥ का कारण होता है, उसे अमनोज्ञ कहते
८८. भावस्स मणं गहणं वयन्ति मन भाव का ग्राहक है। भाव मन
मणस्स भावं गहणं वयन्ति। का ग्राह्य है। जो राग का कारण है, रागस्स हेडं समणुन्नमाहु उसे मनोज्ञ कहते हैं। और जो द्वेष का दोसस्स हेडं अमणुनमाहु ॥ कारण है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं। भावेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं जो मनोज्ञ भावों में तीव्र रूप से अकालियं पावइ से विणासं। आसक्त है, वह अकाल में विनाश को रागाउरे कामगुणेसु गिद्धे प्राप्त होता है। जैसे हथिनी के प्रति करेणुमग्गावहिए व नागे॥ आकृष्ट काम गुणों में आसक्त रागातुर
हाथी विनाश को प्राप्त होता है। ९०. जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं जो अमनोज्ञ भाव के प्रति तीव्ररूप
तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं। से द्वेष करता है, वह उसी क्षण अपने दुइन्तदोसेण सएण जन्तू दुर्दान्त द्वेष से दुःखी होता है। इसमें न किंचि भावं अवरज्झई से॥ भाव का कोई अपराध नहीं है।
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