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उत्तराध्ययन सूत्र ७२. एमेव रसम्मि गओ पओसं इसी प्रकार जो रस के प्रति द्वेष
उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। करता है, वह उत्तरोत्तर दुःख की पदुद्धचित्तो य चिणाइ कम्मं । परम्परा को प्राप्त होता है । द्वेष युक्त जं से पुणो होइ दुहं विवागे॥ चित्त से जिन कर्मों का उपार्जन करता
है, वे ही विपाक के समय दु:ख के
कारण बनते हैं। ७३. रसे विरत्तो मणुओ विसोगो रस में विरक्त मनुष्य शोकरहित
एएण दुक्खोहपरंपरेण। होता है। वह संसार में रहता हुआ भी न लिप्पई भवमझे वि सन्तो लिप्त नहीं होता है, जैसे-जलाशय में
जलेण वा पोक्खरिणीपलासं॥ कमल का पत्ता जल से। ७४. कायस्स फासं गहणं वयन्ति काय का विषय स्पर्श है। जो
तं रागहेडं तु मणुन्नमाहु। स्पर्श राग में कारण है उसे मनोज्ञ तं दोसहेडं अमणुन्नमाह कहते हैं। जो स्पर्श द्वेष का कारण
समो य जो तेसु स वीयरागो॥ होता है उसे अमनोज्ञ कहते हैं। ७५. फासस्स कायं गहणं वयन्ति काय स्पर्श का ग्राहक है, स्पर्श
कायस्स फासं गहणं वयन्ति।। काय का ग्राह्य है। जो राग का कारण रागस्स हेडं समणुन्नमाह है उसे मनोज्ञ कहते हैं और जो द्वेष का
दोसस्स हेडं अमणुन्नमाहु ।। कारण है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं। ७६. फासेस जो गिद्धिमवेइ तिव्वं जो मनोज्ञ स्पर्श में तीव्र रूप से
अकालियं पावइ से विणासं। आसक्त है, वह अकाल में ही विनाश रागाउरे सीयजलावसन्ने । को प्राप्त होता है। जैसे-वन में गाहग्गहीए महिसे व ऽरने ॥ जलाशय के शीतल स्पर्श में आसक्त
रागातुर भैंसा मगर के द्वारा पकड़ा
जाता है। ७७. जे यावि दोसं समवेड तिव्वं जो अमनोज्ञ स्पर्श के प्रति तीव्र
तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं। रूप से द्वेष करता है, वह जीव उसी दुहुन्तदोसेण सएण जन्तु क्षण अपने दुर्दान्त द्वेष से दुःखी होता न किंचि फासं अवरज्झई से॥ है। इसमें स्पर्श का कोई अपराध नहीं
७८. एगन्तरत्ते . रुडरंसि फासे जो मनोहर स्पर्श में अत्यधिक
अतालिसे से कुणई पओसं। आसक्त होता है और अमनोहर स्पर्श दुरास्स संपीलमुवेइ बाले में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःख की न लिप्पई तेण मणी विरागो॥ पीड़ा को प्राप्त होता है । विरक्त मुनि
उनमें लिप्त नहीं होता है।
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