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३२-प्रमाद-स्थान
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६६. रसाणुगासाणुगए य जीवे
चराचरे हिंसइ ऽणेगळंवे। चित्तेहि ते परितावेइ बाले पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिटे॥
रस की आशा का अनुगामी अनेक रूप त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है। अपने प्रयोजन को ही मुख्य मानने वाला क्लिष्ट अज्ञानी विविध प्रकार से उन्हें परिताप देता है, पीड़ा पहुँचाता है।
रस में अनुरक्ति और ममत्त्व के कारण रस के उत्पादन में, संरक्षण में
और सन्नियोग में तथा व्यय और वियोग में उसे सुख कहाँ ? उसे उपभोग-काल में भी तृप्ति नहीं मिलती
६७. रसाणुवाएण परिग्गहेण
उप्पायणे रक्खणसन्निओगे। वए विओगे य कहिं सहं से? संभोगकाले य अतित्तिलाभे॥
६८. रसे अतित्ते य परिग्गहे य रस में अतृप्त और परिग्रह में
सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढेि। आसक्त-उपसक्त व्यक्ति संतोष को प्राप्त अतुट्टिदोसेण दही परस्स नहीं होता। वह असन्तोष के दोष से लोभाविले आययई अदत्तं ॥ दुःखी तथा लोभ से व्याकुल दूसरों की
वस्तुएँ चुराता है। ६९. तण्हाभिभूयस्स अदत्तहारिणो रस और परिग्रह में अतृप्त तथा
रसे अतित्तस्स परिग्गहे य। तृष्णा से पराजित व्यक्ति दूसरों की मायामुसं वड़ा लोभदोसा वस्तुओं को अपहरण करता है। लोभ
के दोष से उसका कपट और झूठ तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से॥
२०" बढ़ता है। कपट और झूठ से भी वह
दुःख से मुक्त नहीं होता है। ७०. मोसस्स पच्छा य पुरत्यओ य . झूठ बोलने के पहले, उसके बाद
पओगकाले य दुही दुरन्ते। और बोलने के समय भी वह दुःखी एवं अदत्ताणि समाययन्तो होता है। उसका अन्त भी दुःखरूप रसे अतित्तो दहिओ अणिस्सो॥ है। इस प्रकार रस में अतृप्त होकर
चोरी करने वाला वह दुःखी और
आश्रयहीन हो जाता है। ७१. रसाणुरत्तस्स नरस्स एवं इस प्रकार रस में अनुरक्त पुरुष
कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि? । को कहाँ, कब, कितना सुख होगा? तत्योवभोगे वि किलेस दुक्खं जिसे पाने के लिए व्यक्ति दुःख उठाता निव्वत्तई जस्स करण दक्खं ॥ है, उस के उपभोग में भी क्लेश और
दुःख ही होता है।
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