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उत्तराध्ययन सूत्र
एमेव गन्धम्मि गओ पओसं इसी प्रकार जो गन्ध के प्रति द्वेष उवेइ दुक्खोहपरंपराओ। करता है, वह उत्तरोत्तर दुःख की पदुद्दचित्तो य चिणाइ कम्मं परम्परा को प्राप्त होता है। द्वेषयुक्त जं से पुणो होइ दुहं विवागे॥ चित्त से जिन कर्मों का उपार्जन करता
है, वे ही विपाक के समय में दुःख के
कारण बनते हैं। ६०. गन्धे विरत्तो मणुओ विसोगो गन्ध में विरक्त मनुष्य शोकरहित
एएण दुक्खोहपरंपरेण। होता है। वह संसार में रहता हुआ भी न लिप्पई भवमझे वि सन्तो लिप्त नहीं होता है, जैसे—जलाशय में
जलेण वा पोक्खरिणी-पलासं॥ कमल का पत्ता जल से। ६१. जिहाए रसं गहणं वयन्ति जिह्वा का विषय रस है। जो रस
तं रागहेडं तु मणुन्नमाहु। राग में कारण है, उसे मनोज्ञ कहते हैं । तं दोसहेडं अमणुन्नमाहु और जो रस द्वेष का कारण होता है,
समो य जो तेसु स वीयरागो। उसे अमनोज्ञ कहते हैं। ६२. रसस्स जिब्भं गहणं वयन्ति जिह्वा रस की ग्राहक है। रस
जिब्भाए रसं गहणं वयन्ति। जिह्वा का ग्राह्य है। जो राग का कारण रागस्स हेडं समणुन्नमाहु है, उसे मनोज्ञ कहते हैं और जो द्वेष का
दोसस्स हेडं अमणुन्नमाहु ॥ कारण है उसे अमनोज्ञ कहते हैं। ६३. रसेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं जो मनोज्ञ रसों में तीव्र रूप से
अकालियं पावइ से विणासं। आसक्त है, वह अकाल में ही विनाश रागाउरे वडिसविभिन्नकाए को प्राप्त होता है। जैसे मांस खाने में मच्छे जहा आमिसभोगगिद्धे ॥ आसक्त रागातुर मत्स्य काँटे से बींधा
जाता है। ६४. जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं जो अमनोज्ञ रस के प्रति तीव्र रूप
तंसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं। से द्वेष करता है, वह उसी क्षण अपने दुइन्तदोसेण सएण जन्तू दुर्दान्त द्वेष से दुःखी होता है। इसमें
रसं न किंचि अवरज्झई से॥ रस का कोई अपराध नहीं है। ६५. एगन्तरते . रुइरे रसम्मि जो मनोज्ञ रस में एकान्त आसक्त
अतालिसे से कुणई पओसं। होता है और अमनोज्ञ रस में द्वेष करता दुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले है, वह अज्ञानी दुःख की पीड़ा को प्राप्त न लिप्पई तेण मुणी विरागो॥ होता है। विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं
होता है।
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