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________________ ३२- प्रमाद - स्थान ५३. गन्धाणुगासाणुगए य जीवे चराचरे हिंसइ ऽणेंगरूवे । चितेहि ते परितावेइ बाले पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिट्टे ॥ परिग्गहेण उपायणे रक्खणसन्निओगे । ar विओगे य कहिं सुहं से ? संभोगकाले य अतित्तिलाभे ॥ ५४. गन्धाणुवाएण ५५. गन्धे अतित्ते य परिग्गहे य सत्तोवसत्तो न उवेइ तुट्ठि । अतुट्ठिदोसेण दुही परस्स लोभाविले आययई अदत्तं ॥ ५६. तहाभिभूयस्स अदत्तहारिणो गन्धे अतित्तस्स परिग्गहे य । मायामुसं वड्डुइ लोभदोसा तत्थावि दुक्खा न विमुच्चई से | ५७. मोसस्स पच्छा य पुरत्यओ य पओगकाले यदुही दुरन्ते । एवं अदत्ताणि समाययन्तो गन्धे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो ॥ ५८. गन्धाणुरत्तस्स नरस्स एवं कत्तो सुहं होज्ज कयाइ किंचि ? । तत्थोवभोगे वि किलेसदुक्खं निव्वत्तई जस्स कएण दुक्खं ॥ Jain Education International ३४५ गन्ध की आशा का अनुगामी अनेक रूप त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है, अपने प्रयोजन को ही मुख्य मानने वाला अज्ञानी विविध प्रकार से उन्हें परिताप देता है, पीड़ा पहुँचाता है। गन्ध में अनुराग और परिग्रह में मत्त्व के कारण गन्ध के उत्पादन में, संरक्षण में और सन्नियोग में तथा व्यय और वियोग में उसे सुख कहाँ ? उसे उपभोग काल में भी तृप्ति नहीं मिलती है । गन्ध में अतृप्त तथा परिग्रह में आसक्त तथा उपसक्त व्यक्ति संतोष को प्राप्त नहीं होता है । वह असंतोष के दोष से दुःखी, लोभग्रस्त व्यक्ति दूसरों की वस्तुएँ चुराता है। गन्ध और परिग्रह में अतृप्त तथा तृष्णा से पराजित व्यक्ति दूसरों की वस्तुओं का अपहरण करता है । लोभ के दोष से उसका कपट और झूठ बढ़ता है | कपट और झूठ से भी वह दुःख से मुक्त नहीं हो पाता है । झूठ बोलने के पहले, उसके बाद और बोलने के समय वह दु:खी होता है । उसका अन्त भी दु:खमय है । इस प्रकार गन्ध से अतृप्त होकर वह चोरी करने वाला दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है । इस प्रकार गन्ध में अनुरक्त व्यक्ति को कहाँ, कब, कितना सुख होगा ? है, उसके उपभोग में भी दुःख और जिसके उपभोग के लिए दुःख उठाता क्लेश ही होता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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