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३२- प्रमाद - स्थान
१६. कामं तु देवीहि विभूसियाहिं न चाड्या खोभइडं तिगुत्ता । तहा वि एगन्तहियं ति नच्चा विवित्तवासो मुणिणं पसत्थो ।
१७. मोक्खाभिकंखिस्स वि माणवस्स संसारभीरुस्स ठियस्स धम्मे । नेयारिसं दुत्तरमत्थि लोए जहित्थिओ बालमणोहराओ ||
१८. एए य संगे समइक्कमित्ता सुहुत्तरा चेव भवन्ति सेसा ।
जहा
महासागरमुत्तरित्ता नई भवे अवि गंगासमाणा ॥
१९. कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स । जं काइयं माणसियं च किंचि तस्सऽन्तगं गच्छइ वीयरागो ॥
२०. जहा य किंपागफला मणोरमा रसेण वण्णेण य भुज्जमाणा । ते खुड्डुए जीविय पच्चमाणा एओवमा कामगुणा विवागे ।
२१. जे इन्दियाणं विसया मणुन्ना न तेसु भावं निसिरे कयाइ । न या मणुन्नेसु मणं पि कुज्जा समाहिकामे समणे तवस्सी ।
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यद्यपि तीन गुप्तियों से गुप्त मुनि को अलंकृत देवियाँ (अप्सराएँ) भी विचलित नहीं कर सकतीं, तथापि एकान्त हित की दृष्टि से मुनि के लिए विविक्तवास- स्त्रियों के सम्पर्क से रहित एकान्त निवास ही प्रशस्त है
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मोक्षाभिकांक्षी, संसारभीरु और धर्म में स्थित मनुष्य के लिए लोक में ऐसा कुछ भी दुस्तर नहीं है, जैसे कि अज्ञानियों के मन को हरण करने वाली स्त्रियाँ दुस्तर हैं 1
स्त्री-विषयक इन उपर्युक्त संसर्गों का सम्यक् अतिक्रमण करने पर शेष सम्बन्धों का अतिक्रमण वैसे ही सुखोत्तर ( सहज सुख से तैरना ) हो जाता है, जैसे कि महासागर को तैरने के बाद गंगा जैसी नदियों को तैर जाना आसान है।
समस्त लोक के, यहाँ तक कि देवताओं के भी, जो कुछ भी शारीरिक और मानसिक दुःख हैं, वे सब कामासक्ति से पैदा होते हैं । वीतराग आत्मा ही उन दुःखों का अन्त कर पाते
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जैसे किंपाक फल रस और रूप-रंग की दृष्टि से देखने और खाने में मनोरम होते हैं, किन्तु परिणाम में जीवन का अन्त कर देते हैं, काम-गुण भी अन्तिम परिणाम में ऐसे ही होते
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समाधि की भावना वाला तपस्वी श्रमण इन्द्रियों के शब्द - रूपादि मनोज्ञ विषयों में रागभाव न करे, और इन्द्रियों के अमनोज्ञ विषयों में मन से भी द्वेषभाव न करे ।
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