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उत्तराध्ययन सूत्र
२२. चक्खुस्स रूवं गहणं वयन्ति चक्षु का ग्रहण (ग्राह्य विषय) रूप
तं रागहेडं तु मणुन्नमाहु। है। जो रूप राग का कारण होता है, तं दोसहेडं अमणुनमाहु उसे मनोज्ञ कहते हैं और जो रूप द्वेष समो य जो तेसु य वीयरागो॥ का कारण होता है, उसे अमनोज्ञ कहते
हैं। इन दोनों में जो सम (न रागी, न
द्वेषी) रहता है, वह वीतराग है। २३. रुवस्स चक्खं गहणं वयन्ति चक्षु रूप का ग्रहण-ग्राहक है।
चक्खस्स रूवं गहणं वयन्ति। रूप चक्षु का ग्रहण-ग्राह्य विषय है। रागस्स हेडं समणुन्नमाह जो राग का कारण है, उसे मनोज्ञ कहते दोसस्स हेडं अमणुन्नमाहु॥ हैं और जो द्वेष का कारण है, उसे
अमनोज्ञ कहते हैं। २४. रूवेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं जो मनोज्ञरूपों में तीव्र रूप से
अकालियं पावइ से विणासं। गृद्धि। आसक्ति रखता है, वह रागातुर रागाउरे से जह वा पयंगे अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता आलोयलोले समुवेइ मच्चु ॥ है। जैसे प्रकाश-लोलुप पतंगा प्रकाश
के रूप में आसक्त होकर मृत्यु को प्राप्त
होता है। २५. जे यावि दोसं समवेइ तिव्वं जो अमनोज्ञ रूप के प्रति तीव्र रूप
तंसि क्ख णे से उ उवेइ दुक्खं। से द्वेष करता है, वह उसी क्षण अपने दुद्दन्तदोसेण सएण जन्तू दुर्दान्त (दुर्दम) द्वेष से दुःख को प्राप्त न किंचि रूवं अवरज्झई से।। होता है। इसमें रूप का कोई अपराध
नहीं है। २६. एगन्तरत्ते रुइरंसि रूवे जो सुन्दर रूप में एकान्त (अतीव)
अतालिसे से कुणई पओसं। आसक्त होता है और अतादृशदुक्खस्स संपीलमुवेइ बाले कुरूप में द्वेष करता है, वह अज्ञानी न लिप्पई तेण मुणी विरागो। दुःख की पीड़ा को प्राप्त होता है।
विरक्त मुनि उनमें लिप्त (रागी, द्वेषी)
नहीं होता है। रूवाणुगासाणुगए य जीवे मनोज्ञ रूप की आशा (इच्छा) का चराचरे हिंसइ ऽणेगरूवे। अनुगमन करने वाला व्यक्ति अनेकरूप चित्तेहि ते परितावेइ बाले चराचर अर्थात् त्रस और स्थावर जीवों पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिडे ।। की हिंसा करता है। अपने प्रयोजन को
ही अधिक महत्त्व देने वाला क्लिष्ट (राग से बाधित) अज्ञानी विविध प्रकार से उन्हें परिताप देता है, पीड़ा पहुँचाता
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