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________________ ३३८ उत्तराध्ययन सूत्र ११. जहा दवग्गी पउरिन्धणे वणे जैसे प्रचण्ड पवन के साथ प्रचुर समारुओ नोवसमं उवेइ। ईन्धन वाले वन में लगा दावानल शान्त एविन्दियग्गी वि पगामभोइणो नहीं होता है, उसी प्रकार प्रकामभोजीन बम्भयारिस्स हियाय कस्सई॥ यथेच्छ भोजन करने वाले की इन्द्रियाग्नि (वासना) शान्त नहीं होती। ब्रह्मचारी के लिए प्रकाम भोजन कभी भी हितकर नहीं है। १२. विवित्तसेज्जासणजन्तियाणं जो विविक्त (स्त्री आदि से रहित) ओमासणाणं दमिइन्दियाणं। शय्यासन से यंत्रित (युक्त) हैं, जो न रागसत्तू धरिसेइ चित्तं __अल्पभोजी हैं, जो जितेन्द्रिय हैं, उनके पराइओ बाहिरिवोसहेहिं॥ चित्त को राग-द्वेष पराजित नहीं कर सकते हैं, जैसे औषधि से पराजित (विनष्ट) व्याधि पुन: शरीर को आक्रान्त नहीं करती है। १३. जहा बिरालावसहस्स मूले जिस प्रकार बिडालों (बिलाव या न मूसगाणं वसही पसत्या। बिल्ली) के निवास स्थान के पास चहों एमेव इत्थीनिलयस्स मज्झे का रहना प्रशस्त-हितकर नहीं है, न बम्भयारिस्स खमो निवासो॥ उसी प्रकार स्त्रियों के निवास स्थान के पास ब्रह्मचारी का रहना भी प्रशस्त नहीं है। १४. न रूव-लावण्ण-विलास-हासं श्रमण तपस्वी स्त्रियों के रूप, न जंपियं इंगिय-पेहियं वा। लावण्य, विलास, हास्य, आलाप, इंगित इत्थीण चित्तंसि निवेसइत्ता (चेष्टा) और कटाक्ष को मन में निविष्ट दटुं ववस्से समणे तवस्सी॥ कर देखने का प्रयल न करे। अदंसणं चेव अपत्थणं च जो सदा ब्रह्मचर्य में लीन हैं, उनके अचिन्तणं चेव अकित्तणं च। लिए स्त्रियों का अवलोकन न करना, इत्थीजणस्सारियझाणजोग्गं उनकी इच्छा न करना, चिन्तन न करना, हियं सया बम्भवए रयाणं॥ वर्णन न करना हितकर है, तथा आर्य (सम्यक्) ध्यान साधना के लिए उपयुक्त १५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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