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________________ ३२-प्रमाद-स्थान ५. न वा लभेज्जा निउणं सहायं यदि अपने से अधिक गुणों वाला गुणाहियं वा गुणओ समं वा। अथवा अपने समान गुणों वाला निपुण एक्को वि पावाइ विवज्जयन्तो साथी न मिले, तो पापों का वर्जन करता विहरेज्ज कामेसु असज्जमाणो॥ हुआ तथा काम-भोगों में अनासक्त रहता हुआ अकेला ही विचरण करे। ६. जहा य अण्डप्पभवा बलागा जिस प्रकार अण्डे से बलाका अण्डं बलगप्पभवं जहा य। (बगुली) पैदा होती है और बलाका से एमेव मोहाययणं खु तण्हा अण्डा उत्पन्न होता है, उसी प्रकार मोह मोहं च तण्हाययणं वयन्ति ।। का जन्म-स्थान तृष्णा है, और तृष्णा का जन्म-स्थान मोह है। ७. रागो य दोसो वि य कम्मबीयं कर्म के बीज राग और द्वेष हैं। कम्मं च मोहप्पभवं वयन्ति। कर्म मोह से उत्पन्न होता है। वह कर्म कम्मं च जाई-मरणस्स मूलं जन्म और मरण का मूल है और जन्म दुक्खं च जाई-मरणं वयन्ति ॥ एवं मरण ही दुःख है। दुक्खं हयं जस्स न होइ मोहो. उसने दुःख को समाप्त कर दिया मोहो हओजस्स न होइ तण्हा। है, जिसे मोह नहीं है। उसने मोह को तण्हा हया जस्स न होइ लोहो मिटा दिया है,। जिसे तृष्णा नहीं है। लोहो हओजस्सन किंचणाडं। उसने तृष्णा का नाश कर दिया है, जिसे लोभ नहीं है। उसने लोभ को समाप्त कर दिया है, जिसके पास कुछ भी परिग्रह नहीं है, अर्थात् जो अकिंचन है। रागं च दोसं च तहेव मोहं जो राग, द्वेष और मोह का मूल से उद्धत्तुकामेण समूलजालं। उन्मूलन चाहता है, उसे जिन-जिन जे जे उवाया पडिवज्जियव्वा उपायों को उपयोग में लाना चाहिए, ते कित्तइस्सामि अहाणुपुट्विं॥ उन्हें मैं क्रमश: कहूँगा। १०. रसा पगामं न निसेवियव्वा रसों का उपयोग प्रकाम (अधिक) पायं रसा दित्तिकरा नराणं। नहीं करना चाहिए। रस प्राय: मनुष्य दित्तं च कामा समभिवन्ति के लिए दृप्तिकर, अर्थात् उन्माद बढ़ाने दमं जहा साउफलं व पक्खी॥ वाले होते हैं। विषयाक्त मनुष्य को काम वैसे ही उत्पीड़ित करते हैं, जैसे स्वादुफल वाले वृक्ष को पक्षी । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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