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________________ - - एगतीसइमं अज्झयणं : एकत्रिंश अध्ययन ___ चरणविही : चरण-विधि मूल चरणविहिं पवक्खामि जीवस्स उ सुहावहं जं चरित्ता बहू जीवा तिण्णा संसारसागरं एगओ विरई कुज्जा एगओ य पवत्तणं। असंजमे नियत्तिं च संजमे य पवत्तणं ।। रागद्दोसे य दो पावे पावकम्मपवत्तणे। जे भिक्खू रुम्भई निच्चं से न अच्छइ मण्डले॥ दण्डाणं गारवाणं च सल्लाणं च तियं तियं। जे भिक्खू चयई निच्चं से न अच्छइ मण्डले । दिव्वे य जे उवसग्गे तहा तेरिच्छ-माणुसे। जे भिक्खू सहई निच्चं से न अच्छइ मण्डले॥ हिन्दी अनुवाद जीव को सुख प्रदान करने वाली उस चरण-विधि का कथन करूँगा, जिसका आचरण करके बहुत से जीव संसार-सागर को तैर गए हैं। साधक को एक ओर से निवृत्ति और एक ओर प्रवृत्ति करनी चाहिए। असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति। ____ पाप कर्म के प्रवर्तक राग और द्वेष हैं। इन दो पाप कर्मों का जो भिक्षु सदा निरोध करता है, वह मंडल में अर्थात् संसार में नहीं रुकता है। तीन दण्ड, तीन गौरव और तीन शल्यों का जो भिक्षु सदैव त्याग करता है, वह संसार में नहीं रुकता है। देव, तिर्यच और मनुष्य-सम्बन्धी उपसर्गों को जो भिक्षु सदा सहन करता है, वह संसार में नहीं रुकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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