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चरण-विधि सम्यक् प्रवृत्ति ही अन्त में अप्रवृत्ति का कारण बनती है। .
प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'चरण-विधि' है। चरण-विधि का अर्थ हैविवेकपूर्वक प्रवृत्ति । विवेकपूर्वक प्रवृत्ति ही संयम है और अविवेकपूर्वक प्रवृत्ति असंयम । अविवेकपूर्वक प्रवृत्ति में संयम की सुरक्षा असंभव है। अत: यह जान लेना आवश्यक है कि-अविवेक पूर्वक प्रवृत्तियाँ कौन-सी हैं? वे किस प्रकार होती हैं? और उनसे बचने का कौन-सा उपाय है? इसी का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकरण में है।
साधक संज्ञा अर्थात्-आहार, भय, मैथुन और परिग्रह के विषय की रागात्मक चित्तवृत्ति से मुक्त रहे । हिंसक व्यापार से दूर रहे। चित्त का उद्वेग भय है। भय के सात स्थान हैं। इन भय स्थानों में भी साधु भय को प्राप्त न हो। जिन कार्यों से आश्रव होता है, उन कार्यों को क्रियास्थान कहते हैं। साधु उन क्रियास्थानों से भी अलग रहे । असंयम अविवेक है। अविवेक से अनर्थ होते हैं। अत: साधु असंयम में न रहे। स्वसंलीनता समाधि है। समाधिस्थ साधक का प्रत्येक कार्य अक्रिय अर्थात् अकर्म स्थिति को प्राप्त करने में सहायक होता है। इसलिए समाधिस्थ साधक उन तमाम असमाधि-स्थानों से अलग रहे । इसी प्रकार साधना की पवित्रता के विघातक शबल दोष होते हैं। साधु शबल दोषों से दूर रहता है। और जिन कारणों से मोह होता है, उन मोहस्थानों से भी दूर रहता है। उसे निरन्तर साधना में, अध्ययन में एवं धर्मचिन्तन में लीन रहना चाहिए। इस प्रकार साधु दुष्प्रवृत्तियों से अलग रहकर सत्प्रवृत्तियों में अपना जीवन व्यतीत करता है। अन्त में इसका परिणाम उसे संसार-चक्र के परिभ्रमण से मुक्ति के रूप में प्राप्त होता है।
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