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वीरासणाईया
जीवस्स उ सुहावहा । उग्गा जहा धरिज्जन्ति कायकिलेसं तमाहियं ॥
२७. ठाणा
२८. एगन्तमणावाए
इत्थी सुविवज्जिए । सणास सेवा विवित्तसयणासणं ॥
२९. एसो
बाहिरंगतवो
समासेण वियाहिओ । अब्धिन्तरं तवं एतो वुच्छामि अणुपव्वसो || ३०. पायच्छित्तं विणओ वेयावच्चं तहेव सज्झाओ । झाणं च विउस्सग्गो एसो अब्भिन्तरो तवो ॥
३१. आलोयणारिहाईयं
पायच्छित्तं तु दसविहं । जे भिक्खू वहई सम्मं पायच्छित्तं तमाहियं ॥
३२. अब्भुट्ठाणं अंजलिकरणं तवासणदायणं । गुरुभत्ति-भावसुस्सूसा विणओ एस वियाहिओ ॥ ३३. आयरियमाइयम्मि य वेयावच्चम्मि दसविहे । आसेवणं
जहाथामं वेयावच्वं तमाहियं ॥
३४. वायणा पुच्छणा चेव तहेव परियट्टा । अणुप्पेहा धम्मकहा सज्झाओ पंचहा भवे ॥
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उत्तराध्ययन सूत्र
आत्मा को सुखावह अर्थात् सुखकर वीरासनादि उग्र आसनों का अभ्यास, 'कायक्लेश' तप है ।
एकान्त, अनापात (जहाँ कोई आताजाता न हो ) तथा स्त्री- पशु आदि से रहित शयन एवं आसन ग्रहण करना, 'विविक्तशयनासन' (प्रति संलीनता) तप है ।
संक्षेप में यह बाह्य तप का व्याख्यान है ।
अब क्रमश: आभ्यन्तर तप का निरूपण करूँगा ।
प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग— यह आभ्यन्तर तप है I
आलोचनार्ह आदि दस प्रकार का प्रायश्चित्त, जिसका भिक्षु सम्यक् प्रकार से पालन करता है, 'प्रायश्चित्त' तप है ।
खड़े होना, हाथ जोड़ना, आसन देना, गुरुजनों की भक्ति तथा भावपूर्वक शुश्रूषा करना, 'विनय' तप है 1
आचार्य आदि से सम्बन्धित दस प्रकार के वैयावृत्य का यथाशक्ति आसेवन करना, 'वैयावृत्य' तप है ।
वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा - यह पंचविध 'स्वाध्याय' तप है ।
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