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३० – तपो - मार्ग - गति
वज्जित्ता
३५. अट्टरुद्दाणि झाएज्जा सुसमाहिए । धम्मसुक्काई झाणाई झाणं तं तु बुहा वए ॥
३६. सयणासण- ठाणे वा जे उ भिक्खू न वावरे | विउस्सग्गो
कायस्स
छट्टो सो परिकित्तिओ |
३७. एयं तवं तु दुविहं जे सम्म आयरे मुणी । से खियं अव्वसंसारा विप्पमुच्चइ पण्डिए ||
-त्ति बेमि ।
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आर्त और रौद्र ध्यान को छोड़कर सुसमाहितमुनि जो धर्म और शुक्ल ध्यान ध्याता है, ज्ञानीजन उसे ही 'ध्यान' तप कहते हैं ।
सोने, बैठने तथा खड़े होने में जो भिक्षु शरीर से व्यर्थ की चेष्टा नहीं करता है, यह शरीर का व्युत्सर्ग'व्युत्सर्ग' नामक छठा तप है ।
जो पण्डित मुनि दोनों प्रकार के तप का सम्यक् आचरण करता है, वह शीघ्र ही सर्व संसार से विमुक्त हो जाता है I
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- ऐसा मैं कहता हूँ ।
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