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० - तपो - मार्ग - गति
मोरुसीणं
asहं पिउ जत्तिओ भवे कालो । चरमाणो
खलु
एवं कालोमाणं मुणेयवो ॥
२०. दिवसस्स
२१. अहवा तइयाए पोरिसीए ऊणाइ घासमेसन्तो ।
वा
चभागूणाए एवं कालेण ऊ भवे ॥
विसेसेणं
वणेणं भावमणुमुयन्ते उ । चरमाणो खलु भावोमाणं मुणेयव्वो ॥
एवं
२२. इत्थी वा पुरिसो वा
स्त्री अथवा पुरुष, अलंकृत अथवा अलंकिओ वाऽणलंकिओ वा वि । अनलंकृत, विशिष्ट आयु और अमुक अन्नयरवयत्थो वा वर्ण के वस्त्र— अन्नयरेणं व वत्थेणं ॥
२३. अन्नेण
खेत्ते काले
भावम्मि य आहिया उ
जे भावा । ओमचरओ
एएहि
पज्जवचरओ भवे भिक्खू ॥ २५. अट्ठविहगोयरगं तु तहा सत्तेव एसणा । अभिग्गहा य जे अन्ने भिक्खायरियमाहिया 11
२४. दव्वे
२६. खीर - दहि- सप्पिमाई पणीयं पाणभोयणं । परिवज्जणं रसाणं तु भणिय रसविवज्जणं ॥
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दिवस के चार प्रहर होते हैं। उन चार प्रहरों में भिक्षा का जो नियत समय है, तदनुसार भिक्षा के लिए जाना, यह काल से 'ऊणोदरी' तप है ।
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अथवा कुछ (चतुर्थ भाग आदि) भाग- न्यून तृतीय प्रहर में भिक्षा की एषणा करना, काल की अपेक्षा से 'ऊणोदरी' तप है ।
अथवा अमुक विशिष्ट वर्ण एवं भाव से युक्त दाता से ही भिक्षा ग्रहण करना, अन्यथा नहीं -- इस प्रकार की चर्या वाले मुनि को भाव से 'ऊणोदरी' तप है।
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में जो-जो पर्याय (भाव) कथन किये हैं, उन सबसे ऊणोदरी तप करने वाला 'पर्यवचरक' होता है ।
आठ प्रकार के गोचराय, सप्तविध एषणाएँ और अन्य अनेक प्रकार के अभिग्रह - 'भिक्षाचर्या' तप है 1
दूध, दही, घी आदि प्रणीत ( पौष्टिक ) पान, भोजन तथा रसों का त्याग, 'रसपरित्याग' तप
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