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________________ ३२४ सपरिकम्मा अपरिकम्मा य आहिया । नीहारिमणीहारी आहारच्छेओ य दोसु वि ॥ १३. अहवा १४. ओमोयरियं पंचहा समासेण वियाहिय । दव्वओ खेत्त-कालेणं भावेणं पज्जवेहि य ॥ १५. जो जस्स उ आहारो तत्तो ओमं तु जो करे । जहनेणेगसित्थाई एवं वेण १६. गामे नगरे तह रायहाणिनिगमे य आगरे पल्ली । खेडे कब्बड - दोणमुहपट्टण - मडम्ब - संबाहे ॥ || १७. आसमपए विहारे सन्निवेसे समाय- घोसे य । थलि - सेणाखन्धारे सत्थे संवट्ट कोट्टे य ॥ १८. वाडेसु व रच्छासु व घरेसु वा एवमित्तियं खेत्तं । कप्पइ उ माई एवं खेत्तेण ऊ भवे ॥ १९. पेडा य अद्धपेडा गोमुत्ति पयंगवीहिया चेव । सम्बुकावट्टा SS ययगन्तुं पच्चागया छट्ठा ॥ Jain Education International उत्तराध्ययन सूत्र अथवा मरणकाल अनशन के सपरिकर्म और अपरिकर्म ये दो भेद हैं । अविचार अनशन के निर्हारी और अनिर्हारी - ये दो भेद भी होते हैं दोनों में आहार का त्याग होता है । 1 संक्षेप में अवमौदर्य (ऊनोदरिका) द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और पर्यायों की अपेक्षा से पाँच प्रकार का है । जो जितना भोजन कर सकता है, उसमें से कम-से-कम एक सिक्थ अर्थात् एक कण तथा एक ग्रास आदि के रूप में कम भोजन करना, द्रव्य से 'ऊणोदरी' तप है I ग्राम, नगर, राजधानी, निगम, आकर, पल्ली, खेड़, कर्वट, द्रोणमुख, पत्तन, मण्डप, संबाध आश्रम - पद, विहार, सन्निवेश, समाज, घोष, स्थली, सेना का शिविर, सार्थ, संवर्त, कोट— वाट — पाडा, रथ्या - गली और घर - इन क्षेत्रों में तथा इसी प्रकार के दूसरे क्षेत्रों में निर्धारित क्षेत्र - प्रमाण के अनुसार भिक्षा के लिए जाना, क्षेत्र से 'ऊणोदरी' तप है 1 अथवा पेटा, अर्ध-पेटा, गोमूत्रिका, पतंग-वीथिका, शम्बूकावर्ता और आयतगत्वा प्रत्यागता —— यह छह प्रकार का क्षेत्र से 'ऊणोदरी' तप है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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