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तपो-मार्ग-गति तप एक दिव्य रसायन है, जो शरीर और आत्मा के यौगिक भाव को मिटाकर आत्मा को अपने मूल स्वभाव में स्थापित करता है।
ज्ञान, दर्शन और चारित्र की तरह तप भी मुक्ति का मार्ग है। वस्तुत: तप चारित्र का ही एक अंग है । तप स्वत: प्रेरणा से प्रतिकूलता में स्वयं को उपस्थित करके स्वयं के निरीक्षण का एक अवसर उपस्थित करता है।
आत्मा का अनादि संस्कार के कारण शरीर के साथ तादात्म्य हो गया है। तादात्म्य को तोड़ने से ही मुक्ति हो सकती है। इस तादात्म्य को तोड़ने में तप भी एक अमोघ उपाय है।
वस्तुत: शरीर को कष्ट देना, पीड़ित करना तप का उद्देश्य नहीं है। किन्तु शरीर से सर्वथा स्वतन्त्र 'स्व' का बोध और 'स्व' का स्वरूपावस्थित होना ही तप का लक्ष्य है। उसकी प्राप्ति के दो मार्ग हैं। एक है-स्वयं की अनुभूति में से शरीर का लुप्त हो जाना ; अर्थात् उसके कर्तापन के भार का हट जाना। दूसरा मार्ग है-शरीर को झकझोर कर, जो भीतर है उसको जानने का प्रयत्न करना, उसकी खोज करना, उसको ढूँढ निकालना। तप यही करता है। उसके दो भेद हैं-बाह्य और आभ्यन्तर । बाह्य तप का लक्ष्य आभ्यन्तर तप है। वस्तुत: आभ्यन्तर तप के लिए ही बाह्य तप है। बाह्य तप से यदि आभ्यन्तर तप की प्रेरणा मिलती है, तो वह तप है, अन्यथा मात्र देहदण्ड है। आभ्यन्तर तप का विशुद्ध भाव जगाए बिना बाह्य तप कर्मबन्ध का हेतु ही होता है, कर्मनिर्जरा का नहीं। अत: बाह्य तप आध्यात्मिक भावस्वरूप आन्तरिक तप की परिबृंहणा के लिए है।
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