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उत्तराध्ययन सूत्र सू० ७३-अहाउयं पालइत्ता केवल ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् अन्तो-मुहुत्तद्धावसेसाउए जोगनिरोहं शेष आयु को भोगता हुआ, जब करेमाणे सहमकिरियं अप्पडिवाइ अन्तर्मुहूर्त-परिमाण आयु शेष रहती है, सुक्कज्झाणं झायमाणे, तप्पढमयाए तब वह योग निरोध में प्रवृत्त होता है। मणजोगं निरुम्भइ मणजोगं निरुम्भ- तब 'सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति' नामक इत्ता वइजोगं निरुम्भइ, वइजोगं शुक्ल-ध्यान को ध्याता हुआ प्रथम निरुम्भइत्ता, आणापाणुनिरोहं करेइ, मनोयोग का निरोध करता है, अनन्तर
आणापाणुनिरोहं करेइत्ता ईसि वचन योग का निरोध करता है, उसके पंचहस्सक्खरुच्चारधाए य णं पश्चात् आनापान-श्वासोच्छ्वास का अणगारे समुच्छिन्नकिरियं अनिय- निरोध करता है। श्वासोच्छ्वास का डिसक्कज्झाणं झियाममाणे वियणिज्जं, निरोध करके स्वल्प काल तक—पाँच आउयं, नामं, गोत्तं च एए ह्रस्वअक्षरों के उच्चारण काल तक चत्तारि वि कम्मसे जुगवं खवेइ॥ 'समुच्छिन्न-क्रिया-अनवृत्ति' नामक
शुक्ल ध्यान में लीन हुआ अनगार वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र-इन
चार कमां का एक साथ क्षय करता है। सू०७४-तओ ओरालियकम्माइं उसके बाद वह औदारिक और च सव्वाहि विष्पजहणाहिं विष्प- कार्मण शरीर को सदा के लिए पूर्णरूप जहिता उज्जुसेढिपत्ते, अफुसमाणगई से छोड़ता है। पूर्ण-रूप से शरीर को उड्ढे एगसमएणं अविग्गहेणं तत्य छोड़कर ऋजु श्रेणि को प्राप्त होता है गन्ता, सागारोवउत्ते सिज्झइ बुज्झइ और एक समय में अस्पृशद्गतिरूप मुच्चइ परिनिव्वाएड सव्वदुक्खाण- ऊर्ध्वगति से बिना मोड़ लिए सीधे मन्तं करेइ॥
लोकाग्र में जाकर साकारोपयुक्तएस खलु सम्मत्तपरक्कमस्स ज्ञानोपयोगी सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, अज्झयणस्स अट्टे समणेणं भगवया मुक्त होता है। सभी दु:खों का अन्त महावीरेणं आघविए, पनविए, करता है। परूविए, दंसिए, उवदंसिए॥ श्रमण भगवान् महावीर के द्वारा
सम्यक्त्व-पराक्रम अध्ययन का यह पूर्वोक्त अर्थ आख्यात है, प्रज्ञापित है, प्ररूपित है, दर्शित है और उपदर्शित
-त्ति बेमि।
-ऐसा मैं कहता हूँ।
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