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२९-सम्यक्त्व-पराक्रम
३१९ सू० ७२-पेज्ज-दोस-मिच्छादसण- ___ भन्ते ! प्रेय-राग, द्वेष और
विजएणं भन्ते जीवे किं मिथ्या-दर्शन के विजय से जीव को जणयइ?
क्या प्राप्त होता है? पेज्ज-दोस-मिच्छादसणविजएणं प्रेय, द्वेष और मिथ्या-दर्शन के नाण - दंसण - चरित्ताराहणयाए विजय से जीव ज्ञान, दर्शन और चारित्र अब्भुढेइ। अट्ठविहस्स कम्मस्स की आराधना के लिए उद्यत होता है। कम्मगण्ठिविमोयणयाए तप्पढमयाए आठ प्रकार के कर्मों की कर्म-ग्रन्थि को जहाणुपुचि अदुवीसइविहं मोहणिज्जं खोलने के लिए सर्वप्रथम मोहनीय कर्म कम्मं उग्धाएइ पंचविहं नाणावर- की अट्ठाईस प्रकृतियों का क्रमश: क्षय णिज्जं, नवविहं दंसणावरणिज्जं, करता है। अनन्तर ज्ञानावरणीय कर्म पंचविहं अन्तरायं-एए तिन्नि वि कम्मंसे की पाँच, दर्शना-वरणीय कर्म की नौ, जुगवं खवेइ। तओ पच्छा अणुत्तरं, और अन्तराय कर्म की पाँच—इन तीनों अणंतं, कसिणं, पडिपुण्णं, निरावरणं, कर्मों की प्रकृतियों का एक साथ क्षय वितिमिरं, विसुद्धं लोगालोगप्पभावगं, करता है । तदनन्तर वह अनुत्तर, अनन्त, केवल-वरनाणदंसणं समुप्पाडे। कृत्स्न-सर्ववस्तुविषयक, प्रतिपूर्ण,
जाव सजोगी भवइ ताव य निरावरण, अज्ञानतिमिर से रहित, इरियावहियं कम्मं बन्धइ सुहफरिसं, विशुद्ध और लोकालोक के प्रकाशक दुसमयठिइयं। तं पढमसमए बद्धं केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन को प्राप्त बिइयसमए वेइयं, तइयसमए होता है। जब तक वह संयोगी रहता निज्जिण्णं।
है, तब तक ऐा-पथिक कर्म का बन्ध तं बद्धं, पुटुं, उदीरियं, वेइयं, होता है। वह बन्ध भी सुख-स्पर्शी निज्जिण्णं सेयाले य अकम्मं चावि (सातवेदनीय रूप पुण्य कर्म) है, उसकी भवइ॥
स्थिति दो समय की है। प्रथम समय में बन्ध होता है, द्वितीय समय में उदय होता है, तृतीय समय में निर्जरा होती है। वह कर्म क्रमश: बद्ध होता है, स्पृष्ट होता है, उदय में आता है, भोगा जाता है, नष्ट होता है, फलत: आगामी काल में अर्थात् अन्त में वह कर्म अकर्म हो जाता है।
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