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उत्तराध्ययन सूत्र
सू० ६०-नाणसंपन्नयाए णं भन्ते! भन्ते ! ज्ञान-सम्पन्नता से जीव को जीवे किं जणयइ?
क्या प्राप्त होता है? नाणसंपन्नयाए णं जीवे सव्व- ज्ञान-सम्पन्नता से जीव सब भावों भावाहिगमं जणयइ। नाणसंपन्ने णं को जानता है। ज्ञान-सम्पन्न जीव चार जीवे चाउरन्ते संसारकन्तारे न गतिरूप अन्तों वाले संसार वन में नष्ट विणस्सइ।
नहीं होता है। जहा सूई ससुत्ता
जिस प्रकार ससूत्र (धागे से युक्त) पडिया वि न विणस्सइ। सुई कहीं गिर जाने पर भी विनष्ट (गुम) तहा जीवे ससुत्ते नहीं होती, उसी प्रकार ससूत्र (श्रुतसंसारे न विणस्सइ ।।
सम्पन्न) जीव भी संसार में विनष्ट नहीं
होता। नाण-विणयं-तव-चरित्तजोगे ज्ञान, विनय, तप और चारित्र के संपाउणइ ससमय-परसमयसं घाय- योगों को प्राप्त होता है। तथा स्वसमय णिज्जे भवइ।
और परमसमय में, अर्थात् स्वमतपरमत की व्याख्याओं में संघातनीय
प्रामाणिक माना जाता है। सू० ६१-दंसणसंपन्नयाए णं भन्ते! भन्ते ! दर्शन-संपन्नता से जीव को जीवे किं जणयड?
क्या प्राप्त होता है? दसणसंपन्नयाए णं भवमिच्छत्त- दर्शन सम्पन्नता से संसार के हेत् छेयणं करेड़ परं न विज्झायइ । अणु- मिथ्यात्व का छेदन करता है, उसके त्तरेणं नाणदंसणेणं अप्पाणं संजोए- बाद सम्यक्त्व का प्रकाश बुझता नहीं माणे, सम्मं भावेमाणे विहरइ।
है। श्रेष्ठ ज्ञान-दर्शन से आत्मा को संयोजित कर उन्हें सम्यक् प्रकार से आत्मसात् करता हुआ विचरण करता
सू० ६२-चरित्तसंपन्नयाए णं भन्ते! भन्ते ! चारित्र-सम्पन्नता से जीव जीवे किं जणयइ?
को क्या प्राप्त होता है? चरित्तसंपन्नयाए णं सेलेसीभावं चारित्र-सम्पन्नता से जीव शैलेशीजणयइ । सेलेसिं पडिवन्ने य अणगारे भाव को-शैलेश अर्थात् मेरुपर्वत के चत्तारि केवलिकम्मंसे खवेड। तओ समान सर्वथा अकम्प स्थिरता को प्राप्त पच्छा सिज्झाइ बुज्झइ मुच्चड़
होता है। शैलेशी भाव को प्राप्त परिनिव्वाएड सव्वदुक्खाणमंत्तं
अनगार चार केवलि-सत्क कर्मों का क्षय करता है। तत्पश्चात् वह सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वाण को प्राप्त होता है और सब दुःखों का अन्त करता है।
करेइ।
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