________________
३१२
उत्तराध्ययन सूत्र सू० ४३-पडिरूवयाए णं भन्ते! जीवे भन्ते ! प्रतिरूपता से जीव को किं जणयइ?
क्या प्राप्त होता है? पडिरूवयाए णं लापवियं प्रतिरूपता से-जिन-कल्प जैसे जणयइ । लहुभूए णं जीवे अप्पमत्ते, आचार के पालन से जीव उपकरणों की पागडलिंगे, पसत्यलिंगे, विसुद्ध- लघुता को प्राप्त होता है। लघु भूत सम्मत्ते, सत्तसमिइसमत्ते, सव्वपाण- होकर जीव अप्रमत्त, प्रकट लिंग (वेष) भूयजीवसत्तेसु वीससणिज्जरूवे, वाला, प्रशस्त लिंग वाला, विशुद्ध अप्पडिलेहे, जिइन्दिए, विउलतव- सम्यकत्व से सम्पन्न, सत्त्व (धैर्य) और समिइसमन्नागए यावि भवइ। समिति से परिपूर्ण, सर्व प्राण, भूत जीव
और सत्त्वों के लिए विश्वसनीय, अल्प प्रतिलेखन वाला, जितेन्द्रिय, विपुलतप और समितियों का सर्वत्र प्रयोग करने
वाला होता है। सू० ४४-वेयावच्चेणं भन्ते ! जीवे किं भन्ते ! वैयावृत्य से जीव को क्या जणयइ?
__प्राप्त होता है? वेयावच्चेणं तित्ययरनामगोत्तं वैयावृत्य से जीव तीर्थंकर कम्मं निबन्धइ ।।
नाम-गोत्र का उपार्जन करता है? सू० ४५-सव्वगुणसंपन्नयाए णं भन्ते! भन्ते ! सर्वगुणसंपन्नता से जीव जीवे किं जणयइ?
को क्या प्राप्त होता है? सव्वगुणसंपन्नयाए णं अपुणरा- सर्वगुणसंपन्नता से जीव वत्तिं जणयइ। अपुणरावत्तिं पत्तए य अपुनरावृत्ति (मुक्ति) को प्राप्त होता है। णं जीवे सारीरमाणसाणं दक्खाणं नो अपनरावृत्ति को प्राप्त जीव शारीरिक भागी भवइ ।
और मानसिक दुःखों का भागी नहीं
होता है। सू० ४६-वीयरागयाए णं भन्ते! भन्ते ! वीतरागता से जीव को जीवे किं जणयइ?
क्या प्राप्त होता है ? वीयरागयाए णं नेहाणुबन्ध- वीतरागता से जीव स्नेह और णाणि, तण्हाणुबन्धणाणि य वोच्छि- तृष्णा के अनुबन्धनों का विच्छेद करता न्दइ। मणुनेसुसद्द-फरिस-रस-रूव- है। मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्धेसु चेव विरज्जइ।
गन्ध से विरक्त होता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org