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________________ ३१० सू० ३६ - आहारपच्चक्खाणेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? आहारपच्चक्खाणेणं जीवियासंसप्पओगं वोच्छिन्दन् । जीवियासंसप्पओगं वोच्छिन्दित्ता जीवे आहारमन्तरेणं न संकिलिस्सइ । सू० ३७ - कसायपच्चक्खाणेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? कसायपच्चक्खाणेणं वीयरागभावं जणयइ | वीयरागभावपडिवन्ने वि य णं जीवे समसुहदुक्खे भवइ ॥ सू० ३८ - जोगपच्चक्खाणेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? जोगपच्चक्खाणं अजोगतं जय । अजोगी णं जीवे नवं कम्मं न बन्धइ, पुव्ववद्धं च निज्जरेइ । सू० ३९ - सरीरपच्चक्खाणेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? सरीरपच्चक्खाणेणं सिद्धाइसयगुणत्तणं निव्वत्तेइ । सिद्धाइसयगुणसंपन्ने य णं जीवे लोगग्गमुवगए परमसुही भवइ । Jain Education International उत्तराध्ययन सूत्र भन्ते ! आहार के प्रत्याख्यान से जीव को क्या प्राप्त होता है ? आहार के प्रत्याख्यान से जीव जीवन की आशंका - कामना के प्रयत्नों को विच्छिन्न कर देता है । जीवन की कामना के प्रयत्नों को छोड़कर वह आहार के अभाव में भी क्लेश को प्राप्त नहीं होता है । भन्ते ! कषाय के प्रत्याख्यान से जीव को क्या प्राप्त होता है ? प्रत्याख्यान से 1 कषाय के वीतरागभाव को प्राप्त होता है। वीतरागभाव को प्राप्त जीव सुख-दुःख में सम हो जाता है । भन्ते ! योग के प्रत्याख्यान से जीव को क्या प्राप्त होता है ? मन, वचन, काय से सम्बन्धित योगों - व्यापारों के प्रत्याख्यान से अयोगत्व को प्राप्त होता है । अयोगी जीव नए कर्मों का बन्ध नहीं करता है, पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है । भन्ते ! शरीर के प्रत्याख्यान से जीव को क्या प्राप्त होता है ? शरीर के प्रत्याख्यान से जीव सिद्धों के विशिष्ट गुणों को प्राप्त होता है । सिद्धों के विशिष्ट गुणों से सम्पन्न जीव लोकाग्र में पहुँचकर परम सुख को प्राप्त होता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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