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सू० ३६ - आहारपच्चक्खाणेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ?
आहारपच्चक्खाणेणं जीवियासंसप्पओगं वोच्छिन्दन् । जीवियासंसप्पओगं वोच्छिन्दित्ता जीवे आहारमन्तरेणं न संकिलिस्सइ ।
सू० ३७ - कसायपच्चक्खाणेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ?
कसायपच्चक्खाणेणं वीयरागभावं जणयइ | वीयरागभावपडिवन्ने वि य णं जीवे समसुहदुक्खे
भवइ ॥
सू० ३८ - जोगपच्चक्खाणेणं भन्ते !
जीवे किं जणयइ ? जोगपच्चक्खाणं अजोगतं जय । अजोगी णं जीवे नवं कम्मं न बन्धइ, पुव्ववद्धं च निज्जरेइ ।
सू० ३९ - सरीरपच्चक्खाणेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? सरीरपच्चक्खाणेणं सिद्धाइसयगुणत्तणं निव्वत्तेइ । सिद्धाइसयगुणसंपन्ने य णं जीवे लोगग्गमुवगए परमसुही भवइ ।
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उत्तराध्ययन सूत्र
भन्ते ! आहार के प्रत्याख्यान से जीव को क्या प्राप्त होता है ?
आहार के प्रत्याख्यान से जीव जीवन की आशंका - कामना के प्रयत्नों को विच्छिन्न कर देता है । जीवन की कामना के प्रयत्नों को छोड़कर वह आहार के अभाव में भी क्लेश को प्राप्त नहीं होता है ।
भन्ते ! कषाय के प्रत्याख्यान से जीव को क्या प्राप्त होता है ?
प्रत्याख्यान से
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कषाय के वीतरागभाव को प्राप्त होता है। वीतरागभाव को प्राप्त जीव सुख-दुःख में सम हो जाता है ।
भन्ते ! योग के प्रत्याख्यान से जीव को क्या प्राप्त होता है ?
मन, वचन, काय से सम्बन्धित योगों - व्यापारों के प्रत्याख्यान से अयोगत्व को प्राप्त होता है । अयोगी जीव नए कर्मों का बन्ध नहीं करता है, पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा करता है ।
भन्ते ! शरीर के प्रत्याख्यान से जीव को क्या प्राप्त होता है ?
शरीर के प्रत्याख्यान से जीव सिद्धों के विशिष्ट गुणों को प्राप्त होता है । सिद्धों के विशिष्ट गुणों से सम्पन्न जीव लोकाग्र में पहुँचकर परम सुख को प्राप्त होता है ।
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