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२९-सम्यक्त्व-पराक्रम
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सू० ३३-विणियट्टणयाए णं भन्ते! भन्ते ! विनिवर्तना से जीव को जीवे किं जणयइ?
क्या प्राप्त होता है? विणियट्टणयाए णं पावकम्माणं विनिवर्तना से--मन और इन्द्रियों अकरणयाए अब्भटे। पुवबद्धाण को विषयों से अलग रखने की साधना य निज्जरणयाए तं नियत्तेड से जीव पाप कर्म न करने के लिए तओ पच्छा चाउरन्तं संसारकन्तारं उद्यत रहता है, पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा वीइवयइ।
से कर्मों को निवृत्त करता है। तदनन्तर जिसके चार अन्त हैं, ऐसे संसार
कान्तार को शीघ्र ही पार कर जाता है। सू० ३४-संमोगपच्चक्खाणेणं भन्ते! भन्ते ! सम्भोग के प्रत्याख्यान से " जीवे किं जणयइ?
जीव को क्या प्राप्त होता है? ___ संभोग पच्चक्खाणेणं आलम्बणाई सम्भोग (एक-दूसरे के साथ खवेइ। निरालम्बणस्स य आयय- सहभोजन आदि के संपर्क) के ट्ठिया जोगा भवन्ति। सएणं लाभेणं प्रत्याख्यान से परावलम्बन से निरालम्ब संतुस्सइ, परलाभं नो आसाएड होता है। निरालम्ब होने से उसके सारे नो तक्केइ नो पीहेइ, नो पत्थेइ नो प्रयत्न आयतार्थ (मोक्षार्थ) हो जाते हैं। अभिलसइ। परलाभं अणासायमाणे, स्वयं के उपार्जित लाभ से सन्तुष्ट होता अतक्केमाणे, अपीहेमाणे, अपत्येमाणे, है। दूसरों के लाभ का आस्वादन अणभिलसमाणे दुच्चं सुहसेज्ज (उपभोग) नहीं करता है। उसकी उबसंपज्जित्ताणं विहरइ।
कल्पना नहीं करता है, स्पृहा नहीं करता है, प्रार्थना नहीं करता है, अभिलाषा नहीं करता है। दूसरों के लाभ का आस्वादन, कल्पना, स्पृहा, प्रार्थना और अभिलाषा न करता हुआ दूसरी सुख-शय्या को प्राप्त होकर विहार
करता है। सू० ३५-उवहिपच्चक्खाणेणं भन्ते! भन्ते ! उपधि के प्रत्याख्यान से जीवे किं जणयइ?
जीव को क्या प्राप्त होता है ? उवहिपच्चक्खाणेणं अपलिमन्थं उपधि (उपकरण) के प्रत्याख्यान से जणयइ। निरुवहिए णं जीवे जीव निर्विघ्न स्वाध्याय को प्राप्त होता निक्कंखे, उवहिमन्तरेण य न है। उपधिरहित जीव आकांक्षा से मक्त संकिलिस्सई।
होकर उपधि के अभाव में क्लेश को प्राप्त नहीं होता है।
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