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उत्तराध्ययन सूत्र
सू० ३०-सुहसाएणं भन्ते! जीवे किं
जणयइ?
भन्ते ! सुखशात से अर्थात् वैषयिक सुखों की स्पृहा के शातननिवारण से जीव को क्या प्राप्त होता
सुहसाएणं अणुस्सुयत्तं जणयइ। सुख-शात से विषयों के प्रति अणुस्सुयाए णं जीवे अणुकम्मए, अनुत्सुकता होती है। अनुत्सुकता से अणुब्भडे, विगयसोगे, चरित्तमोह- जीव अनुकम्पा करने वाला, अनुभट णिज्जं कम्मं खवेइ॥
(प्रशान्त), शोकरहित होकर चारित्रमोहनीय कर्म का क्षय करता है।
सू० ३१-अप्पडिबद्धयाए णं भन्ते! भन्ते ! अप्रतिबद्धता (अनासक्ति) जीवे किं जणयइ?
से जीव को क्या प्राप्त होता है ? अप्पडिबद्धयाए णं निस्संगतं अप्रतिबद्धता से जीव निस्संग जणयइ। निस्संगत्तेणं जीवे एगे, होता है। निस्संग होने से जीव एकाकी एगग्गचित्ते, दिया य राओ य (आत्मनिष्ठ) होता है, एकाग्रचित्त होता असज्जमाणे, अप्पडिबढ़ेयावि है। दिन और रात सदा सर्वत्र विरत्त विहरइ॥
और अप्रतिबद्ध होकर विचरण करता
सू० ३२-विवित्तसयणासणयाए णं भन्ते ! विविक्त शयनासन से जीव
भन्ते ! जीवे किं जणयइ? को क्या प्राप्त होता है ?
विवित्तसयणासणयाए णं चरित्त- विविक्त शयनासन से—अर्थात् गुत्तिं जणयइ। चरित्तगुत्ते य णं जनसंमर्द से रहित एकान्त स्थान में जीवे विवित्ताहारे, दढचरित्ते, विनाश करने से जीव चारित्र की रक्षा एगन्तरए, मोक्खभावपडिवन्ने करता है। चारित्र की रक्षा करने वाला अट्ठविहकम्मगंठिं निज्जरेइ॥ विविक्ताहारी (वासना-वर्धक पौष्टिक
आहार का त्यागी), दृढ़ चारित्री, एकान्तप्रिय, मोक्ष भाव से संपन्न जीव आठ प्रकार के कर्मों की ग्रन्थि का निर्जरण-क्षय करता है।
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