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________________ ३०४ उत्तराध्ययन सूत्र पच्चक्खाणेणं आसवदाराई प्रत्याख्यान से जीव आश्रवद्वारों निरुम्भइ। का-कर्मबन्ध के रागादि हेतुओं का निरोध करता है। सू० १५-थव-थुइमंगलेणं भन्ते! भन्ते ! स्तवस्तुति मंगल से जीव जीवे किं जणयइ? को क्या प्राप्त होता है ? । थवथइमंगलेण नाण-दंसण-चरित्त स्तव-स्तुति मंगल से जीव को बोहिलाभं जणयइ। नाण-दंसण ज्ञान-दर्शन चारित्र-स्वरूप बोधि का चरित्तबोहिलाभसंपन्ने य णं जीवे लाभ होता है। ज्ञान-दर्शन-चारित्र अन्तकिरियं कप्पविमाणोववत्तिगं स्वरूप बोधि के लाभ से संपन्न जीव आराहणं आराहेइ॥ अन्तक्रिया (मोक्ष) के योग्य अथवा वैमानिक देवों में उत्पन्न होने के योग्य आराधना करता है। सू० १६-कालपडिलेहणयाए णं भन्ते ! काल की प्रतिलेखना से भन्ते! जीवे किं जणयइ? जीव को क्या प्राप्त होता है ? कालपडिलेहणयाए णं नाणा- काल की प्रतिलेखना से (स्वाध्याय वरणिज्ज कम्मं खवेइ॥ आदि धर्म-क्रिया के लिए उपयुक्त समय का ध्यान रखने से) जीव ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय करता है। सू० १७–पायच्छित्तकरणेणं भन्ते! भन्ते ! प्रायश्चित्त (पापकर्मों की जीवे किं जणयइ? तप आदि के द्वारा विशुद्धि) से जीव को क्या प्राप्त होता है? पायच्छित्तकरणेणं पावकम्म- प्रायश्चित्त से जीव पापकर्मों को विसोहि जणयइ निरइयारे यावि दूर करता है और धर्म-साधना को भवइ। सम्मं च णं पायच्छित्तं निरतिचार बनाता है। सम्यक् प्रकार से पडिवज्जमाणे मग्गं च मग्गफलं च प्रायश्चित्त करने वाला साधक मार्ग विसोहेइ। आयारं च आयारफलं (सम्यक्त्व) और मार्ग-फल (ज्ञान) को च आराहेइ॥ निर्मल करता है। आचार और आचार-फल (मुक्ति) की आराधना करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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