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२९-सम्यक्त्व-पराक्रम
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सू० १८-खमावणयाए णं भन्ते! भन्ते ! क्षामणा (क्षमापना) करने से जीवे किं जणयइ?
__ जीव को क्या प्राप्त होता है? खमावणयाए णं पल्हायणभावं क्षमापना करने से जीव प्रहलाद जणयइ। पल्हायणभावमवगए य भाव (चित्तप्रसत्तिरूप मानसिक प्रसन्नता) सव्वपाण-भूय-जीवसत्तेसु मित्तीभाव- को प्राप्त होता है। प्रह्लाद भाव से मुप्पाइए। मित्तीभावमुवगए यावि सम्पन्न साधक सभी प्राण, भूत, जीव जीवे भावविसोहिं काउण निब्भए और सत्त्वों के साथ मैत्री भाव को प्राप्त भवइ॥
होता है। मैत्री भाव को प्राप्त जीव
भाव-विशुद्धि कर निर्भय होता है। सू० १९-सज्झाएणं भन्ते! जीवे किं भन्ते ! स्वाध्याय से जीव को क्या जणयइ?
प्राप्त होता है? सज्झाएणं नाणावरणिज्ज कम्मं स्वाध्याय से जीव ज्ञानावरणीय खवेइ॥
कर्म का क्षय करता है। सू० २०-वायणाए णं भन्ते ! जीवे भन्ते ! वाचना (अध्यापन-पढ़ाना) किंजणयह?
से जीव को क्या प्राप्त होता? वायणाए णं निज्जरं जणयइ। वाचना से जीव कर्मों की निर्जरा सुयस्स य अणासायणाए वट्टए। करता है, श्रुत ज्ञान की आशातना के सुयस्स अणासायणाए वट्टमाणे दोष से दूर करता है। श्रत ज्ञान की तित्यधम्मं अवलम्बइ। तित्थधम्म
आशातना के दोष से दूर रहने वाला अवलम्बमाणे महानिज्जरे महापज्ज
तीर्थ धर्म का अवलम्बन करता हैवसाणे भवइ॥
गणधरों के समान जिज्ञास शिष्यों को श्रुत प्रदान करता है। तीर्थ धर्म का अवलम्बन लेकर कर्मों की महानिर्जरा करता है। और महापर्यवसान (संसार
का अन्त) करता है। सू० २१-पडिपुच्छणयाए णं भन्ते! भन्ते ! प्रतिप्रच्छना से जीव को जीवे किं जणयइ?
क्या प्राप्त होता है ? पडिपुच्छणयाए णं सुत्तऽत्य- प्रतिप्रच्छना (पूर्वपठित शास्त्र के तदुभयाइं विसोहेइ। कंखामोहणिज्जं सम्बन्ध में शंकानिवृत्ति के लिए प्रश्न कम्मं वोच्छिन्दछ।
करना) से जीव सत्र, अर्थ और तदभयदोनों से सम्बन्धित कांक्षामोहनीय (संशय) का निराकरण करता है।
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