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________________ २९-सम्यक्त्व-पराक्रम ३०३ सू० ११-वन्दणएणं भन्ते !. जीवे भन्ते ! वन्दना से जीव को क्या किं जणयइ? प्राप्त होता है ? वन्दना से जीव नीचगोत्र कर्म का क्षय करता है। उच्च वन्दणएणं नीयागोयं कम्मं गोत्र का बन्ध करता है। वह अप्रतिहत खवेइ । उच्चागोयं निबन्धइ । सोहग्गं सौभाग्य को प्राप्त कर सर्वजनप्रिय च णं अप्पडिहयं आणाफलं निव्वत्तेइ होता है। उसकी आज्ञा सर्वत्र मानी दाहिणभावं च णं जणयइ॥ जाती है। वह जनता से दाक्षिण्य अनुकूलता को प्राप्त होता है। सू० १२-पडिक्कमणेणं भन्ते! जीवे भन्ते ! प्रतिक्रमण (दोषों के किं जणयइ? प्रतिनिवर्तन) से जीव को क्या प्राप्त होता है? पडिक्कमणेणं वयछिद्दाई पिहेइ। प्रतिक्रमण से जीव स्वीकृत व्रतों पिहियवयछिद्दे पुण जीवे निरुद्धासवे, के छिद्रों को बंद करता है। ऐसे व्रतों असबलचरित्ते, अट्ठसु पवयणमायासु के छिद्रों को बंद कर देने वाला जीव उवउत्ते अपुहत्ते सुप्पणिहिए आश्रवों का निरोध करता है, शुद्ध विहरइ॥ चारित्र का पालन करता है, समितिगुप्ति रूप आठ प्रवचन-माताओं के आराधन में सतत उपयुक्त रहता है, संयम-योग में अपृथक्त्व (एक रस, तल्लीन) होता है और सन्मार्ग में सम्यक् समाधिस्थ होकर विचरण करता है। सू० १३-काउस्सग्गेणं भन्ते! जीवे भन्ते ! कायोत्सर्ग (कछ समय के किं जणयइ? लिए देहोत्सर्ग-देह-भाव के विसर्जन) से जीव को क्या प्राप्त होता है ? काउस्सग्गेणं ऽतीय-पडुप्पन्नंपाय- कायोत्सर्ग से जीव अतीत और विसोहेड़। वर्तमान के प्रायश्चित्तयोग्य अतिचारों विसद्धपायच्छित्ते य जीवे का विशोधन करता है। प्रायश्चित्त से निव्वुयहियए ओहरियभारो ब्व विशुद्ध हुआ जीव अपने भार को हटा भारवहे, पसत्थज्झाणोवगए, देने वाले भार-वाहक की तरह सुहंसुहेण विहरइ॥ निर्वृतहृदय (शान्त) हो जाता है और प्रशस्त ध्यान में लीन होकर सुखपूर्वक विचरण करता है। सू० १४-पच्चक्खाणेणं भन्ते! भन्ते ! प्रत्याख्यान (संसारी विषयों जीवे किं जणयइ? के परित्याग) से जीव को क्या प्राप्त होता है? च्छित्तं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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