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उत्तराध्ययन सूत्र सू० ७-निन्दणयाए णं भन्ते ! जीवे ___ भन्ते ! निन्दा (स्वयं के द्वारा स्वयं कि जणयइ?
के दोषों का तिरस्कार) से जीव को
क्या प्राप्त होता है? निन्दणयाए णं पच्छाणुतावं निन्दा से पश्चात्ताप प्राप्त होता जणयइ। पच्छाणुतावेणं विरज्जमाणे है। पश्चात्ताप से होने वाली विरक्ति से करणगुणसेटिं पडिवज्जइ करणगु- करण-गण-श्रेणि प्राप्त होती है। णसेढिं पडिवन्ने य णं अणगारे करण-गुण-श्रेणि को प्राप्त अनगार मोहणिज्जं कम्मं उग्घाएइ॥ मोहनीय कर्म को नष्ट करता है। सू० ८-गरहणयाए णं भन्ते ! जीवे भन्ते ! गर्दा (दूसरों के समक्ष किं जणयइ?
अपने दोषों को प्रकट करना) से जीव
को क्या प्राप्त होता है? गरहणयाए णं अपुरक्कारं जण- गर्दा से जीव को अपुरस्कार यह। अपुरस्कारगए णं जीवे अप्प- (अवज्ञा) प्राप्त होता है। अपुरस्कृत सत्थेहितो जोगेहितो नियत्तेइ। होने से वह अप्रशस्त कार्यों से निवृत्त पसत्थजोग-पडिवन्ने य णं अणगारे होता है। प्रशस्त कार्यों से युक्त होता अणन्तघाइपज्जवे खवेइ॥ है। ऐसा अनगार ज्ञान-दर्शनादि अनन्त
गुणों का घात करने वाले ज्ञाना वरणादि कर्मों की पर्यायों का क्षय
करता है। सू० ९-सामाइए णं भन्ते! भन्ते ! सामायिक (समभाव) से जीवे किं जणयइ?
जीव को क्या प्राप्त होता है? सामाइएणं सावज्जजोगविरइं सामायिक से जीव सावध योगों जणयइ॥
से-असत्प्रवृत्तियों से विरति को प्राप्त
होता है। सू० १०-चउव्वीसत्थएणं भन्ते! भन्ते ! चतुर्विंशतिस्तव से जीव जीवे किं जणयइ?
को क्या प्राप्त होता है ? चउव्वीसत्थएणं दंसणविसोहिं चतुर्विशति स्तव से–चौबीस जणयइ॥
वीतराग तीर्थङ्करों की स्तुति से जीव दर्शन-विशोधि को प्राप्त होता है।
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