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२९-सम्यक्त्व-पराक्रम
३०१ णं चयइ। अणगारे णं जीवे अगार-धर्म को छोड़ता है। वह सारीर-माणसाणं दुक्खाणं छेयण- अनगार होकर छेदन, भेदन आदि भेयण-संजोगाईणं वोच्छेयं करेइ शारीरिक तथा संयोगादि मानसिक अव्वाबाहं च सुहं निव्वेत्तइ ।। दु:खों का विच्छेद करता है, अव्याबाध
सुख को प्राप्त होता है। सू० ५-गुरु-साहम्मियसुस्सूसणयाए भन्ते ! गुरु और साधार्मिक की
णं भन्ते ! जीवे किं जणयइ? शुश्रूषा से जीव को क्या प्राप्त होता
गुरु-साहम्मियसुस्सूसणयाए णं गुरु और साधार्मिक की शुश्रूषा से विणयपडिवतिं जणयइ। विणयपडि- जीव विनयप्रतिपत्ति को प्राप्त होता है। वन्ने य णं जीवे अणच्चासायणसीले विनयप्रतिपन्न व्यक्ति गुरु की परिवादादिनेरइय-तिरिक्खजोणिय-मणुस्स-देव- रूप आशातना नहीं करता है। उससे दोग्गईओ निरुम्भइ। वण्ण-संजलण- वह नैरयिक, निर्यग, मनुष्य और देव भत्ति-बहुमाणयाए मणुस्स-देवसोग्ग- सम्बन्धी दर्गति का निरोध करता है। ईओ निबन्धइ सिद्धि सोग्गइं च वर्ण (श्लाघा), संज्वलन (गणों का विसोहेइ।
प्रकाशन), भक्ति और बहुमान से मनुष्य पसस्थाइं च णं विणयमूलाई
और देव-सम्बन्धी सुगति का बन्ध सव्वकज्जाइं साहेइ। अन्ने य बहवे
करता है। और श्रेष्ठगतिस्वरूप सिद्धि जीवे विणइत्ता भवइ॥
को विशुद्ध करता है। विनयमूलक सभी प्रशस्त कार्यों को साधता है। बहुत से अन्य जीवों को भी विनयी
बनाने वाला होता है। सू०६-आलोयणाए णं भन्ते! भन्ते ! आलोचना (गुरुजनों के जीवे किं जणयइ?
समक्ष अपने दोषों का प्रकाशन) से
जीव को क्या प्राप्त होता है? आलोयणाए णं माया-नियाण- आलोचना से मोक्ष-मार्ग में विघ्न मिच्छादंसणसल्लाणं मोक्खमग्ग- डालने वाले और अनन्त संसार को विग्घाणं अणन्त संसारवद्धणाणं उद्धरणं बढ़ाने वाले माया, निदान (तप आदि करेई। उज्जुभावं च जणयइ। उज्जु- की वैषयिक फलाकांक्षा) और मिथ्याभावपडिवन्ने य णं जीवे अमाई दर्शन रूप शल्यों को निकाल फेंकता इत्थीवेय-नपुंसगवेयं च न बन्धइ। है। ऋजु-भाव को प्राप्त होता है। पुव्ववद्धं च णं निज्जरेइ ।।
ऋजु-भाव को प्राप्त जीव माया-रहित होता है। अत: वह स्त्री-वेद, नपुंसकवेद का बन्ध नहीं करता है और पूर्वबद्ध की निर्जरा करता है।
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