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________________ ३०० ७२ सेलेसी ७३ अकम्मया सू० २ - संवेगेणं भन्ते ! जीवे किं जणयइ ? संवेगेणं अणुत्तरं धम्मसद्धं जणयइ । अणुत्तरा धम्मसद्धाए संवेगं हव्वमागच्छइ । अणन्ताणुबन्धिकोहमाण- माया-लोभे खवेइ । नवं च कम्मं न बन्ध । तप्पच्चइयं च णं मिच्छत्तविसोहिं काऊण दंसणाराहए भवइ । दंसणविसोहीए य णं विसुद्धाए अत्येगइए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झइ । सोहीए य णं विसुद्धाए तच्चं पुणो भवग्गहणं नाइक्कमइ ॥ सू० ३ - निव्वेएणं भन्ते! जीवे किं जणयइ ? निव्वेएणं दिव्व- माणुस-तेरिच्छिएसु कामभोगेसु निव्वेयं हव्वमागच्छइ । सव्वविसएसु विरज्जइ । सव्वविसएसु विरज्जमाणे आरम्भ परिच्चायं करेइ । आरम्भपरिच्चायं करेमाणे संसारमग्गं वोच्छिन्दइ, सिद्धिमग्गे पडिवन्ने य भवइ ॥ सू० ४- धम्मसद्धाए णं जीवे किं जणयइ ? धम्मसद्धाए णं सायासोक्खेसु रज्जमाणे विरज्जइ । अगारधम्मं च भन्ते ! Jain Education International उत्तराध्ययन सूत्र शैलेशी अकर्मता भन्ते ! संवेग (मोक्षाभिरुचि) से जीव को क्या प्राप्त होता है ? संवेग से जीव अनुत्तर-परम धर्मश्रद्धा को प्राप्त होता है । परम धर्म श्रद्धा से शीघ्र ही संवेग आता है । अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ का क्षय करता है। नए कर्मों का बन्ध नहीं करता है । अनन्तानुबन्धी- रूप तीव्र कषाय के क्षीण होने से मिथ्यात्व - विशुद्धि कर दर्शन का आराधक होता है। दर्शनविशोधि के द्वारा विशुद्ध होकर कई एक जीव उसी जन्म से सिद्ध होते हैं । और कुछ हैं, जो दर्शनविशोधि से विशुद्ध होने पर तीसरे भवका अतिक्रमण नहीं करते हैं । भन्ते ! निर्वेद (विषयविरक्ति) से जीव को क्या प्राप्त होता है ? I निर्वेद से जीव देव, मनुष्य और तिर्यंच- सम्बन्धी काम-भोगों में शीघ्र निर्वेद को प्राप्त होता है । सभी विषयों में विरक्त होता है । सभी विषयों में विरक्त होकर आरम्भ का परित्याग करता है । आरम्भ का परित्याग कर संसार - मार्ग का विच्छेद करता है और सिद्धि मार्ग को प्राप्त होता है । भन्ते ! धर्म-श्रद्धा से जीव को क्या प्राप्त होता है ? धर्म-श्रद्धा से जीव सात - सुख अर्थात् सात वेदनीय कर्मजन्य वैषयिक सुखों की आसक्ति से विरक्त होता है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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