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________________ एगुणतीसइमं अज्झयणं : एकोनत्रिंश अध्ययन सम्मत्तपरक्कमे : सम्यक्त्व-पराक्रम मूल हिन्दी अनुवाद सू० १-सुयं मे आउसं! तेणं भग- आयुष्मन् ! भगवान् ने जो कहा है, वया एवमक्खायं-इहखलु वह मैंने सुना है। सम्मत्तपरक्कमे नाम अज्झयणे इस 'सम्यकत्व पराक्रम' अध्ययन समणेणं भगवया महावीरेणं में काश्यप गोत्रीय श्रमण भगवान् कासवेणं पवेइए, जं सम्मं सद्द- महावीर ने जो प्ररूपणा की है, उसकी हिता, पत्तियाइत्ता, रोयइत्ता, सम्यक् श्रद्धा से, प्रतीति से, रुचि से, फासइत्ता, पालइत्ता, तीरइत्ता, किट्टइत्ता, सोहइत्ता, आराह स्पर्श से, पालन करने से, गहराई पूर्वक इत्ता, आणाए अणुपालइत्ता जानने से, कीर्तन से, शुद्ध करने से, बहवे जीवा सिज्झन्ति, बज्झन्ति, आराधना करने से, आज्ञानुसार मुच्चन्ति, परिनिव्वायन्ति, सव्व- अनुपालन करने से बहुत से जीव सिद्ध दुक्खाणमन्तं करेन्ति। होते हैं, वुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, तस्स णं अयमढे एवमाहिज्जइ, परिनिर्वाण को प्राप्त होते हैं, सब दुःखों जं जहा का अन्त करते हैं। उसका यह अर्थ है, जो इस प्रकार कहा जाता है। जैसे कि१ संवेगे संवेग २ निव्वेए ३ धम्मसद्धा धर्म श्रद्धा ४ गुरुसाहम्मियसुस्सूसणया गुरु और साधार्मिक की शुश्रूषा ५ आलोयणया आलोचना ६ निन्दणया निन्दा निर्वेद २९७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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