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धर्मश्रद्धा से जीव तीव्र कषायों से मुक्त होता है 1
तीव्र कषायों के अभाव में जीव मिथ्यात्व का बन्ध नहीं करता है । और अन्त में उसी जन्म में अथवा तीसरे जन्म में मुक्त होता है । यही बात निर्वेद के सम्बन्ध में है
निर्वेद से अनासक्ति आती है।
इन्द्रियों के विषयों में विरक्ति आती है ।
और उससे आरम्भ एवं परिग्रह का सहज परित्याग होता है । अन्त में संसार परिभ्रमण के चक्र से आत्मा मुक्त होता है ।
धर्मश्रद्धा से जीव सुख-सुविधाओं के प्रति उपेक्षा- भाव प्राप्त करता है । सुख-सुविधाओं की उपेक्षा से अनगार धर्म को प्राप्त होता है । अनगार धर्म को स्वीकार करने से मानसिक दुःखों से मुक्त होता है । अन्त में निर्बाध सुख को प्राप्त होता है ।
● गुरु और साधर्मिकों की सेवा से कर्तव्यों का पालन होता है । गुणग्राहकता आती है
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गुणग्राहकता से सुगति प्राप्त होती है ।
आलोचना से जीव मिथ्यादर्शन - शल्य को उससे सरलता आती है ।
सरलता से विकारी भावों का विलय होता है । • आत्म-निन्दा से जीव को पश्चात्ताप होता है ।
पश्चात्ताप से जीव को विशुद्धभाव प्राप्त होता है । विशुद्धभाव से मोह नष्ट होता है ।
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उत्तराध्ययन सूत्र
यह प्रश्नोत्तरमाला उत्तराध्ययन सूत्र का सार है । इन ७१ बातों की केवल श्रद्धा, रुचि, प्रतीति ही पर्याप्त नहीं है। इन सब को जीवन के अन्तस्तल तक गहराई में उतारने की अपेक्षा है । अध्यात्मभाव की अत्यन्त गहराई को स्पर्श करने वाली ये बाते हैं । अतः पूर्णरूप से सम्यक्तया उन्हें जानकर और उनका अपने 'स्व' के साध प्रगाढ स्पर्श करके ही साधक पूर्णता को प्राप्त हो सकता है
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