________________
२९२
उत्तराध्ययन सूत्र
२६. अणभिग्गहिय-कुदिट्ठी
संखेवरुइ त्ति होइ नायव्वो। अविसारओ पवयणे अणभिग्गहिओ य सेसेसु ॥
(९) जो निर्ग्रन्थ-प्रवचन में अकुशल है, साथ ही मिथ्या प्रवचनों से भी अनभिज्ञ है, किन्तु कुदृष्टि का आग्रह न होने के कारण अल्प-बोध से ही जो तत्त्व श्रद्धा वाला है, वह ‘संक्षेप रुचि',
२७. जो अस्थिकायधम्म (१०) जिन-कथित अस्तिकाय धर्म
सुयधम्मं खलु चरित्तधम्मं च । (धर्मास्तिकाय आदि अस्तिकायों के सद्दहइ जिणाभिहियं
गुणस्वाभावादि धर्म) में, श्रुत-धर्म में
और चारित्र-धर्म में श्रद्धा करता है, वह सो धम्मरुइ त्ति नायव्वो॥
'धर्म-रुचि' वाला है। २८. परमत्थसंथवो वा परमार्थ को जानना, परमार्थ के
सुदिट्ठपरमत्थसेवणा वा वि। तत्त्वद्रष्टाओं की सेवा करना, व्यापन्नवावण्णकुदंसणवज्जणा
दर्शन (सम्यक्त्व भ्रष्ट) और कुदर्शन
(मिथ्यात्वीजनों) से दूर रहना, सम्यक्त्व य सम्मत्तसद्दहणा॥
का श्रद्धान है। २९. नस्थि चरितं सम्मत्तविहणं चारित्र सम्यक्त्व के बिना नहीं
दंसणे उ भइयव्वं । होता है, किन्तु सम्यक्त्व चारित्र के सम्मत्तं-चरित्ताई
बिना हो सकता है। सम्यक्त्व और जुगवं पुव्वं व सम्मत्तं ॥ चारित्र युगपद-एक साथ भी होते हैं।
चारित्र से पूर्व सम्यक्त्व का होना
आवश्यक है। ३०. नादंसणिस्स
नाणं सम्यकत्व के बिना ज्ञान नहीं होता नाणेण विणा न हन्ति चरणगणा। है, ज्ञान के बिना चारित्र-गुण नहीं होता
है। चारित्र-गुण के बिना मोक्ष
(कर्मक्षय) नहीं होता है। और मोक्ष के नस्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ॥ बिना निर्वाण (अनन्त चिदानन्द) नहीं
होता है। ३१. निस्संकिय निक्कंखिय नि:शंका, निष्कांक्षा, निर्विचिकित्सा
निवितिगिच्छा अमूढदिट्टी य। (धर्म के फल के प्रति सन्देह), अमूढउववूह थिरीकरणे दृष्टि (देव, गुरु, शास्त्र और लोक मूढ़ता वच्छल्ल पभावणे अट्ठ॥
आदि से रहित) उपबृंहण (गुणीजनों की प्रशंसा · से गुणों का परिवर्धन), स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावनाये आठ सम्यक्त्व के अंग हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org