SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 326
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८ - मोक्ष - मार्ग- गति ३२. सामाइयत्थ पढमं छेओट्टावणं भवे बीयं । परिहारविसुद्धीयं सुमं तह संपरायं च ॥ ३३. अकसायं अहक्खायं छउमत्थस्स जिणस्स वा । चयरित्तकरं एयं चारितं होइ आहियं ॥ ३४. तवो य दुविहो वुत्तो बाहिरऽब्भन्तरो तहा । बाहिरो छव्विहो वुत्तो एवमभन्त तवो ॥ ३५. नाणेण जाणई भावे दंसणेण य सद्दहे । चरित्तेण निगिण्हाइ तवेण परिसुज्झई ॥ ३६. खवेत्ता पुव्वकम्माई संजमेण तवेण य । सव्वदुक्खपणा पक्कमन्ति महेसिणो || —त्ति बेमि । Jain Education International २९३ चारित्र के पाँच प्रकार हैं- पहला सामायिक, दूसरा छेदोपस्थापनीय, तीसरा परिहारविशुद्धि, चौथा सूक्ष्मसम्पराय और— पाँचवाँ यथाख्यात चारित्र है, जो सर्वथा कषायरहित होता है । वह छद्मस्थ और केवली – दोनों को होता है। ये चारित्र कर्म के चय (संचय) को रिक्त करते हैं, अत: इन्हें चारित्र कहते हैं । तप के दो प्रकार हैं- बाह्य और आभ्यन्तर । बाह्य तप छह प्रकार का है, इसी प्रकार आभ्यन्तर तप भी छह प्रकार का है। आत्मा ज्ञान से जीवादि भावों को जानता है, दर्शन से उनका श्रद्धान करता है, चारित्र से कर्म - आश्रव का निरोध करता है, और तप से विशुद्ध होता है। सर्व दुःखों से मुक्त होने के लिए महर्षि संयम और तप के द्वारा पूर्व कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त करते हैं । - ऐसा मैं कहता हूँ । ***** For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy