SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 324
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८ - मोक्ष - मार्ग - गति १९. एए चेव उ भावे उवइट्टे जो परेण सद्दहई | छउमत्येण जिणेण व उवएसरुइ त्ति नायव्वो । २०. रागो दोसो मोहो अन्नाणं जस्स अवगयं होइ । आणाए रोयंतो सो खलु आणारुई नाम ॥ २१. जो सुत्तमहिज्जन्तो सुण ओगाई सम्मत्तं । अंगण बाहिरेण व सो सुत्तरुत्ति नायव्व ॥ अगाई पयाइं जो पसरई उ सम्मत्तं । उदए व्व तेल्लबिन्दू सो बरु ति नाव्वो । २२. एगेण २३. सो होड़ अभिगमरुई सुयनाणं जेण अत्थओ दिहं । एक्कारस पइणगं दिट्टिवाओ य ॥ अंगाई २४. दव्वाण सव्वभावा सव्वपमाणेहिं जस्स उवलद्धा । सव्वाहि नयविहीहि य वित्थाररुइ त्ति नायव्वो ॥ २५. दंसण-नाण-चरिते तव - विणए सच्च-समिइ-गुत्तीसु । जो किरियाभावरुई सो खलु किरियारुई नाम ॥ Jain Education International २९१ (२) जो अन्य छद्मस्थ अथवा अर्हत् के उपदेश से जीवादि भावों में श्रद्धान करता है, वह 'उपदेशरुचि ' जानना चाहिए । (३) राग, द्वेष, मोह और अज्ञान जिसके दूर हो गये हैं, उसकी आज्ञा में रुचि रखना, 'आज्ञा रुचि' है । (४) जो अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य श्रुत का अवगाहन करता हुआ श्रु से सम्यक्त्व की प्राप्ति करता है, वह 'सूत्र रुचि' जानना चाहिए । (५) जैसे जल में तेल की बूँद फैल जाती है, वैसे ही जो सम्यक्त्व एक पद (तत्त्व बोध) से अनेक पदों में फैलता है, वह ' बीज रुचि' है । (६) जिसने ग्यारह अंग, प्रकीर्णक, दृष्टिवाद आदि श्रुतज्ञान अर्थ- सहित प्राप्त किया है, वह 'अभिगम रुचि' है । (७) समग्र प्रमाणों और नयों से जो द्रव्यों के सभी भावों को जानता है, वह 'विस्तार रुचि' है । (८) दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, विनय, सत्य, समिति और गुप्ति आदि क्रियाओं में जो भाव से रुचि है, वह 'क्रिया रुचि' है 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy